शुक्रवार, 29 जून 2018

महफ़ूज़



घर के खिड़की - दरवाज़े 
इन दिनों 
बंद करते वक़्त 
बहुत आवाज़ करते हैं ।  
जैसे घर में 
रहने वालों के 
अहम टकराते हों 
बात बात पर । 

कल की तूफ़ानी बरसात में
घर के बाहर 
पहरेदारी करता 
बड़ा छायादार पेड़ भी 
धराशायी हो गया ।

घर के भीतर और बाहर 
अब पड़ने लगी हैं दरारें ।
मैं असमंजस में हूँ ।

मुश्किल वक़्त में 
मैं कहाँ पनाह लूँ  ?
भीतर या बाहर  . . 
मैं कहाँ महफ़ूज़ हूँ ?     



14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-07-2018) को "करना मत विश्राम" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. A common problem of every household depicted with great ease of words. Superb Noopur. Liked the intensity of words.

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  3. हार्दिक धन्यवाद शास्त्रीजी . बहुत धन्यवाद दिग्विजय जी .
    अन्य पाठकों तक रचना पहुँचाने के लिए .

    आभारी हूँ कुसुमजी . पढने और सराहने के लिए .
    एक महफ़ूज़ छत खोजते - खोजते एक दिन जब
    हम अपनी छत की मरम्मत ख़ुद करना ठान लेंगे
    उस दिन संभवतः इस अंतर्द्वंद पर विराम लगेगा .

    ओंकारजी आपकी सराहना बहुत मायने रखती है .
    आपकी सहज अभिव्यक्ति और सरल विचार प्रक्रिया सीधे दिल पर दस्तक देती है .

    चिराग जोशी जी आपका कमेंट लुप्त हो गया है पर आपकी सहृदय सराहना का दीप चौखट पर जल रहा है .

    Thank you Unknown for your warm appreciation.
    Thank you Jyoti for reading and commenting.

    Will try to live up to the kind words.
    Do keep coming back to read and share your thoughts.

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  4. तेल चाहिये दरवाज़ों, खिड़कियों को,
    फिर से बे- आवाज़ खुलने के लिए,
    तेल चाहिए रिश्तों को,
    प्यार का,
    अपनेपन का,
    विश्वास का,
    फिर से दमकने के लिए।
    वो जो पेड़ गया ना कल, उसे दीमक लगी होगी,
    वो अपनी ज़िंदगी जी चुका था,
    और उसका समय आ चुका था ;
    महफ़ूज़ किसी पेड़ के नीचे नहीं,
    घर-ओ-दीवार के भीतर,
    मज़बूत छत के नीचे रहेंगे,
    बस रिश्तों को अहम की दीमक से बचाना होगा,
    घर के हर चेहरे को संग-संग मुस्कुराना होगा,
    यूँही हर रिश्ते को सहेजना होगा।

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    1. बहुत सुंदर । इतनी सादगी से इतनी खूबसूरत बात कह दी ।

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  5. वाह विनीता !
    ये सिद्ध हुआ
    कि बात निकलती है
    तो दूर तलक जाती है.
    हवाओं में
    खुशबू बिखेरती है.
    दिल से दिल तक
    एक सुरंग बनती है.
    जो हर तूफ़ान से
    महफ़ूज़ होती है.

    वो वृक्ष
    जो उस रात गिरा था.
    जो जी चुका था . .
    ताउम्र
    घर की निगरानी
    करता रहा था.

    पेड़ था
    तो हवा ठंडी थी,
    पंछी चहचहाते थे,
    घोंसले बनाते थे.
    इन सबकी
    चहल पहल रहती थी.
    उस बूढ़े पेड़ के चलते
    बाहर जितनी हरियाली थी.
    घर में उतनी खुशहाली थी.

    घर में रहने वाले
    जब फिर से पौधे रोपेंगे,
    प्यार से सींचेंगे,
    तब फिर से पेड़ हरे होंगे,
    तने सीधे होंगे
    और रिश्ते फूलेंगे-फलेंगे.

    वह पेड़
    सिर्फ पेड़ नहीं था,
    एक संस्कृति थी.

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  6. क्‍या खूब ही कहा है...नूपुरम जी...जैसे घर में
    रहने वालों के
    अहम टकराते हों
    बात बात पर । बहुत अच्‍छा

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    उत्तर
    1. अलकनंदा जी,धन्यवाद ।

      बादल टकराएं
      और बरस जाएं तो अच्छा ।
      बस बिजली ना गिरे
      किसी घर पर ।
      जल में घुल जाए अंतर्द्वंद,
      और बहा ले जाए कलुष सब,
      शांत हो मन का कोलाहल ।

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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