कविता है,
कर्म की भूमिका ।
पहले कभी थी ,
मन की व्यथा
अथवा जीवन की कथा ।
कभी - कभी कल्पना ,
अनुभव की विवेचना ।
और हमेशा
सरलता की आभा . .
प्रसन्न निश्छल ह्रदय की
मयूरपंखी छटा ।
जाने क्या - क्या
अनुभूति की गठरी में
जाने - अनजाने जुड़ा ,
या घटा . .
जाने
स्वयं ही गया ठगा ।
जो बचा ,
जो सहेजा गया -
छिन - छिन गढ़ा गया . .
वही बनी कविता ।
सुंदर भावाभिव्यक्ति नूपुरम जी।
जवाब देंहटाएंसादर आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों --
मेरे ब्लॉग का लिंक है : http://rakeshkirachanay.blogspot.in/
जी अवश्य ।
हटाएंधन्यवाद ।
सुंदर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।
हटाएंTrue
जवाब देंहटाएंThank you.
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