नहीं पता ..
कैसी है ये दशा ।
पढ़ा हुआ
कुछ भी
याद नहीं रहता .
एक सुन्न सन्नाटा
स्मृति पर छाया हुआ,
जैसे गाढ़ा कोहरा
धुंध का दुशाला दोहरा,
जब भी पीछे मुड़ कर देखा।
पढ़ा हुआ क्या
कुछ भी
याद नहीं रहता ?
पढ़ कर जो कुछ पाया
क्या सब खो दिया ?
अँधेरी कोठरी में जला कर दिया
जैसे कोई चीज़ खोजना ..
ऐसे ही अपने प्रश्न का
मैंने स्वयं उत्तर दिया ।
नहीं हो पाती
पढ़े हुए की व्याख्या,
पर रह जाता है
एक अहसास चुप-चुप सा ।
कहा नहीं जा सकता,
पर अनदेखा भी
किया नहीं जा सकता ।
एक अव्यक्त अनुभूति होती है ।
कोई बात रह जाती है ।
जैसे हवा में खुशबू घुल जाती है ।
जैसे गीली मिट्टी पर छाप रह जाती है ।
फूल मुरझा जाते हैं ।
पर सुगंध मन में बस जाती है ।
वर्षा का जल बह जाता है ।
पर मिट्टी नमी सोख लेती है ।
समय की लठिया टेकता
पतझड़ जब आता है,
सारे पत्ते झड़ जाते हैं ।
और अगर तूफ़ान आ गया ..
सब कुछ तहस-नहस कर जाता है ।
इतना सब ध्वस्त
होने के बाद भी,
मिट्टी में कहीं
बीज दबा रह जाता है ।
भाव के इस बीज से ही
कल अंकुर फूटेगा ।
विचारों का पौधा
पल्लवित होगा ।
और संवेदनशीलता का
हरा-भरा वृक्ष लहलहायेगा
अंतःकरण की
उर्वर भूमि पर ।
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