रविवार, 19 जनवरी 2020

काग़ज़ की नाव


बारिश के पानी में 
छम-छम नाचते 
पानी के बुलबुले 
तैरते देख कर, 
जब कोई बच्चा 
दौड़ कर आता है, 
बड़े चाव से
काग़ज़ की नाव 
बना कर 
पानी में बहाता है,
और सांस रोके देखता है 
नाव डूबी तो नहीं !

देखते-देखते 
जब हिचकोले खाती, 
फिर संभलती, 
नाव बहने लगती है,
और बच्चा उछलता 
शोर मचाता, 
अपार ख़ुशी से 
ताली बजाता है  .  . 

बारिश की बूंद-सा 
वो मासूम लम्हा, 
उस बच्चे को 
ताउम्र, 
ज़िन्दगी के किसी भी 
भंवर में 
डूबने नहीं देता। 


बुधवार, 15 जनवरी 2020

बचपन की पतंग


खेल का मैदान 
बन गया आसमान !
धूप का दुशाला लपेट  
सूरज उचक कर 
रुई के बादल पर 
जा बैठा खुश हो कर 
देखने बच्चों का खेल !

पतंगों भरा आसमान  .. 
लो मच गया घमासान !
हवा ने बजाई विसल !   
दौड़ने लगे बच्चे सब !

धूप में चमकते उनके स्वेटर 
नीला, पीला, हरा, लाल  .. 
गुलाबी स्वेटर पर जामुनी फूल, 
शक्कर पारे से बने किसी पर,
किसी का स्वेटर पट्टीदार,
किसी का स्वेटर बूटीदार !
भूरे स्वेटर पर बनी रेल !
धानी स्वेटर पर फूलों की बेल !  
एक से एक चटक सबके स्वेटर !
इधर रेवड़ी बंट रही छत पर !

चमकीले ऊन सी मांझे की डोर !
चरखी संभाले मुन्नी कर रही शोर !
वो देखो दो चोटी वाली पतंग !
लम्बी जटा खोले नाचे मलंग ! 
चाहिए मुझे चंदोबे वाली पतंग !
दिन ढलने से पहले काटो पतंग !

सुन कर सरपट भागी काली पतंग !
उसके संग हो ली लहरिया पतंग !
पहले दी ढील फिर लिया लपेट !
चौकस नारंगी ने किया चेकमेट !
वो काटा ! चिल्ला कर उछल पड़े सब !
ध्यान हटा ! नारंगी भी झट गई कट !

खुले आसमान में बच्चों का खेल। 
खेलना, झगड़ना, फिर पल भर में मेल। 
बच्चों की उमंग , उड़े जैसे पतंग !
पतंगें भी कभी करें, बच्चों-सा ऊधम !

अजी ! काटो पतंग या कट जाए पतंग !
मिलजुल कर मौज करो सबके संग !
तिल के लड्डू और गुड़ की गजक,   
मुँह करो मीठा और बोलो मीठे बोल !


सोमवार, 6 जनवरी 2020

गुलाबी झुमके




झुमके ले लो !
बिटिया झुमके ले लो !
गुलाबी ठंड में
गुलाबी दुपट्टे संग
खूब फबेंगे तुम पर ।
गुलाब सी खिल उठोगी
बीबी इन्हें पहन कर !

गुलाबी रंग के क्या कहने !
और उस पर गुलाबी झुमके !
चेहरे की रंगत बदल देंगे !
गाल ग़ुलाबी कर देंगे !
जब हौले-हौले हिलेंगे
जी की बतियाँ कह देंगे ।

पहन के तो देखो
फिर चाहे मत लीजो
देखने के भाव ना लगते !
पहने तो फिर ना उतरते !
टूटेंगे तो नए मिलेंगे ।
पर फीके ना पड़ेंगे !
बड़े ग़ज़ब के हैं ये झुमके !
पिया के मन में जा अटकते !

बड़े काम के हैं ये झुमके !
बहरूपिये झुमके !
चाहे पर्स में बांध लो !
चाबी का गुच्छा बना लो !
या परांदे में गूंथ लो !
मेरी बात मानो !
इन्हें रख ही लो !

जब इन्हें पहन कर
किसी के मन भाओगी,
तो भौजी मुझे भी 
याद करना !

गुलाबी रंग तो है ही
दुलार और मनुहार का !
खुशियों का शगुन हैं ये  ..
जो अब हुए तुम्हारे
गुलाबी झुमके !

रविवार, 5 जनवरी 2020

गुलफ़ाम


और इनसे मिलिए !
माई के हाथों का बुना
लाल स्वेटर पहने
हरा गुलूबंद लपेटे
तबीयत से
इतरा रहे हैं !
बन-ठन के
गुलफाम बने 
चले जा रहे हैं !

श्रीमान गुलाब राय की
बेफ़िक्र मुस्कान में,
गरमाहट,
गुनगुनी धूप की नहीं..
माई की 
ममता से
डबडबाई आंखों,
काम कर-कर के
खुरदुरी हुई हथेलियों 
और ऊन-सलाई सी
दक्ष उंगलियों की है !


गुरुवार, 2 जनवरी 2020

वंदनवार



एक दिन अकस्मात 
झर गए यदि सब पात,
ऐसा आए प्रचंड झंझावात  .. 
ना जाने क्या होगा तब ?
सोच कर ह्रदय होता कंपित। 

सूखी टहनियों पर कौन गाता गीत ?
सुने ठूंठ पर कौन बनता नीड़ ?
रीते वृक्ष का कोई क्यों हो मीत ?

क्या कभी हो पायेगा ऐसा संभव ?
ठूंठ की जड़ में जाग्रत हो चेतना। 
प्राण का संचार हो शाखाओं में ऐसा  .. 

लौट आए बेरंग डालियों में हरीतिमा। 
कोई पंछी रुपहला राह भूले पथिक सा, 
संध्या समय में आन बैठे विस्मित-सा। 

अनायास ही छेड़ दे कोई राग ऐसा, 
धूप और वर्षा की बूंदों के शगुन-सा।  
साहस के नव पल्लवों की हो ऐसी छटा 
पात-पात शोभित हो वंदनवार-सा।  



रविवार, 29 दिसंबर 2019

बाप


बड़ी मुद्दत के बाद
समझ में आया,
जो बहुत पहले
समझाया गया था ।
पर समझ ..
आया नहीं था ।

माँ के मन का अवसाद
उफ़नती नदी समान
आंखों से छलक जाता है ।
जी हल्का हो जाता है,
जैसे रुई का फाहा ।
पोंछ देता है
औलाद की आँखों का  
फैला हुआ काजल ।
और हर चोट पर 
लगा देता है मरहम ।

बाप के सीने में
उठते हैं कई तूफ़ान ।
घुमड़ते हैं बादल
गरज कर,
बिना बरसे
हो जाते हैं चट्टान ।
आंसू रिस-रिस कर
भीतर ही भीतर
हिला देते हैं जड़ ।
पर व्यक्त नहीं करता
कभी भी बाप ।

विस्तार कर देता है
अपनी व्यथा का ।
बन जाता है वरद हस्त,
विशाल वट वृक्ष..
और विराट आसमान,
जो दूर से चुपचाप
रखता है सबका ध्यान ।

जब बच्चे बनते हैं माँ-बाप,
और किसी बात पर बाप
बच्चों पर उठाता है हाथ,
याद आ जाती है
एक-एक बात ।

बाप उठाता है हाथ
बच्चे की कमज़ोरियों की
बेतरतीब लकीरें 
संवारने के लिए ।
झटक देता है बच्चे को दूर
उसे अपने पैरों पे
खड़ा करने के लिए ....
अपने सामने ...
ताकि झटका लगे
तो संभाल सके,
वक़्त रहते बच्चा सीख जाए
माँ-बाप के बिना भी
चलना अकेले 
बिना डरे ।

बाप के रूखेपन की तह में
बहती है सरोकार और प्यार की नदी ।
देखना .. शायद कभी दीख जाए
बाप की आंखों में नमी ।

रविवार, 24 नवंबर 2019

अल्पना


भान नहीं कुछ,
ज्ञात नहीं पथ,
मुंह चिढ़ा रहा
दोराहा ।

खेल खेलना
आया ना ।
कोई दांव ना 
आया रास ।
जो भी खेला
पाई मात ।

समझ ना आया
ग़लत हुआ क्या ?
ध्येय समक्ष था
राह क्यों भूला ?

लक्ष्य जो चूका,
भ्रमित मन हुआ ।
धुंध छंटे ना ।
मार्ग सूझे ना ।

इस मोड़ पे ठिठका,
मैं बाट जोहता,
तुमसे विनती करता ..

पार्थसारथी कृष्ण सखा
इस बेर अर्जुन को क्या
ना समझाओगे गीता ?
रथ को ना दोगे दिशा ?

तुम्हारी ही रचना
मैं हूँ ना ?
तो फिर आओ ना
पूरी करो ना,
मेरे जीवन की 
अल्पना ।