तुम एक शायर हो ।
तुम्हें पता है ?
ना जाने
कितने लोगों का आसरा
तुम्हारा पता है ।
जिस पते पर
मन ही मन में,
इन लोगों ने
अपने दिल का हाल
लिख भेजा है ।
तुम्हारे दिल तक उनका
पैग़ाम पहुंचा है क्या ?
अगर हाँ . .
तो ख़याल रखना इनका ।
हज़ारों की तादाद में,
या अकेले ,
ये तुमसे
आस लगाये,
टकटकी बांधे
बैठे होंगे,
कहीं मंच के सामने ।
तुम हर एक को नहीं पहचानते ।
बेहद मामूली लोग ये . .
ठीक से दाद देना भी
नहीं जानते ।
इनके लिए,
तुम ग़ज़ल कहना ।
इनके लिए,
तुम नज़्म पढ़ना ।
तुम्हारा कहा
शायद इनके किसी काम आए।
ये बावले !
तुम्हारी शायरी की
उंगली थामे,
एक पूरी ज़िंदगी जी लेंगे !
इसलिए,
माइक के सामने
जब तुम बुलाये जाओ,
तुम्हें वास्ता
अपनी कलम का . .
उन तमाम बातों का
जिन्होंने तुम्हें शायर बनाया . .
तुम सिर्फ़
उनसे मुख़ातिब होना,
जो तुम्हारा लिखा
जीते हैं ।
जिन्होंने शायरी से
सच्ची मोहब्बत की है ।
जो अपने दिल की बात
तुमसे सुनने आये हैं ।
तुम अपना कलाम
उनके लिए पढ़ना ।
हमेशा दिल की बात कहना ।
कौन कह सकता है ,
सूरदास देख नहीं सकते थे ?
सूर की दृष्टि से ही
हर भक्त ने
कृष्ण लीला का
भावमय दर्शन किया ।
बिना जाने
कौन मान सकता था ?
हेलेन केलर ना सुन सकती थीं ,
ना देख सकती थीं ।
पर जानती सब थीं ।
उनसे ज़्यादा
भरपूर जीवन किसने जिया ?
सारे संसार को उन्होंने
प्रसन्न और कर्मठ जीवन का
सुन्दर दर्शन दिया ।
हेलेन केलर को देखना सिखाया
एक टीचर के विश्वास ने ।
सूरदास ने जीवन भक्ति से साधा
और मन की आँखों से देखा ।
सामर्थ्य जब कम हो,
युद्ध मनोबल से जीते जाते हैं ।
एक ठण्ड ऐसी होती है,
जो हड्डियों से उतरती हुई,
भीतर तक -
सब कुछ जमा देती है ।
ऐसी ठण्ड में काम आता है
किसी के हाथ का बुना स्वेटर ।
अक्सर ये माँ के हाथों का बुना होता है ।
क्योंकि अब तो सब बना - बनाया मिलता है ।
हाथ का बुना स्वेटर बड़े काम का होता है ।
इसमें बुनने वाले का प्यार बुना होता है।
इसे जब बुना गया,
बड़ी देर तक सोचा गया . .
कौनसा रंग आप पर फबेगा ।
कैसा डिज़ाइन आप पर जंचेगा ।
बहुत सोच-समझ कर,
भाभी , बहन , पड़ोसन से पूछ - पूछ कर,
बुनाई की किताब और बढ़िया ऊन खरीदा गया ।
और फिर जाकर बुनाई का सिलसिला शुरू हुआ ।
ऊन की सलाइयां टाइपराइटर की तरह
खट - खट चलने लगीं फटाफट,
यूँ समझिये जंग ही छिड़ गई !
जहां काम से फ़ुर्सत मिली,
सलाइयों की जुगलबंदी होने लगी !
ऊन का गोला ता-ता-थैया इधर-उधर
फुदकते हुए छोटा होने लगा !
गुनगुनी धूप में छत पर,
या बरामदे के तख़्त पर,
बातों का मजमा जमता
और हाथ चलता रहता ।
बार-बार बुला कर नाप लिया जाता ।
नौनिहालों के कौतूहल का ठिकाना क्या !
स्वेटर लम्बा होता जाता ।
सलाइयों का मंतर चलता जाता ।
एक अनोखा अजूबा था !
अलादीन के चिराग से कम ना था !
ऐसा तिलिस्मी था जादू बुनने वालों की
उँगलियों और सलाइयों का !
डिज़ाइन आप ही बनता जाता था !
जो चाहे उनसे बनाने को कह दो !
अब ना वो बचपन रहा ना बचपन का भोलापन ।
ना सर पर रहा दादी, नानी, मौसी, बुआ का आँचल ।
पर अब भी उनके हाथ का बुना स्वेटर,
जाड़ों में बहुत गरमाता और पुचकारता है ।
ममता से सर पर रखा हाथ बहुत याद आता है ।
उनकी थपकियों,लोरियों,कहानियों वाली नरम गोद में,
निश्चिन्त सोने का एहसास कराता है,
अपने बड़ों के हाथों का बुना स्वेटर ।