एक ठण्ड ऐसी होती है,
जो हड्डियों से उतरती हुई,
भीतर तक -
सब कुछ जमा देती है ।
ऐसी ठण्ड में काम आता है
किसी के हाथ का बुना स्वेटर ।
अक्सर ये माँ के हाथों का बुना होता है ।
क्योंकि अब तो सब बना - बनाया मिलता है ।
हाथ का बुना स्वेटर बड़े काम का होता है ।
इसमें बुनने वाले का प्यार बुना होता है।
इसे जब बुना गया,
बड़ी देर तक सोचा गया . .
कौनसा रंग आप पर फबेगा ।
कैसा डिज़ाइन आप पर जंचेगा ।
बहुत सोच-समझ कर,
भाभी , बहन , पड़ोसन से पूछ - पूछ कर,
बुनाई की किताब और बढ़िया ऊन खरीदा गया ।
और फिर जाकर बुनाई का सिलसिला शुरू हुआ ।
ऊन की सलाइयां टाइपराइटर की तरह
खट - खट चलने लगीं फटाफट,
यूँ समझिये जंग ही छिड़ गई !
जहां काम से फ़ुर्सत मिली,
सलाइयों की जुगलबंदी होने लगी !
ऊन का गोला ता-ता-थैया इधर-उधर
फुदकते हुए छोटा होने लगा !
गुनगुनी धूप में छत पर,
या बरामदे के तख़्त पर,
बातों का मजमा जमता
और हाथ चलता रहता ।
बार-बार बुला कर नाप लिया जाता ।
नौनिहालों के कौतूहल का ठिकाना क्या !
स्वेटर लम्बा होता जाता ।
सलाइयों का मंतर चलता जाता ।
एक अनोखा अजूबा था !
अलादीन के चिराग से कम ना था !
ऐसा तिलिस्मी था जादू बुनने वालों की
उँगलियों और सलाइयों का !
डिज़ाइन आप ही बनता जाता था !
जो चाहे उनसे बनाने को कह दो !
अब ना वो बचपन रहा ना बचपन का भोलापन ।
ना सर पर रहा दादी, नानी, मौसी, बुआ का आँचल ।
पर अब भी उनके हाथ का बुना स्वेटर,
जाड़ों में बहुत गरमाता और पुचकारता है ।
ममता से सर पर रखा हाथ बहुत याद आता है ।
उनकी थपकियों,लोरियों,कहानियों वाली नरम गोद में,
निश्चिन्त सोने का एहसास कराता है,
अपने बड़ों के हाथों का बुना स्वेटर ।
जो हड्डियों से उतरती हुई,
भीतर तक -
सब कुछ जमा देती है ।
ऐसी ठण्ड में काम आता है
किसी के हाथ का बुना स्वेटर ।
अक्सर ये माँ के हाथों का बुना होता है ।
क्योंकि अब तो सब बना - बनाया मिलता है ।
हाथ का बुना स्वेटर बड़े काम का होता है ।
इसमें बुनने वाले का प्यार बुना होता है।
इसे जब बुना गया,
बड़ी देर तक सोचा गया . .
कौनसा रंग आप पर फबेगा ।
कैसा डिज़ाइन आप पर जंचेगा ।
बहुत सोच-समझ कर,
भाभी , बहन , पड़ोसन से पूछ - पूछ कर,
बुनाई की किताब और बढ़िया ऊन खरीदा गया ।
और फिर जाकर बुनाई का सिलसिला शुरू हुआ ।
ऊन की सलाइयां टाइपराइटर की तरह
खट - खट चलने लगीं फटाफट,
यूँ समझिये जंग ही छिड़ गई !
जहां काम से फ़ुर्सत मिली,
सलाइयों की जुगलबंदी होने लगी !
ऊन का गोला ता-ता-थैया इधर-उधर
फुदकते हुए छोटा होने लगा !
गुनगुनी धूप में छत पर,
या बरामदे के तख़्त पर,
बातों का मजमा जमता
और हाथ चलता रहता ।
बार-बार बुला कर नाप लिया जाता ।
नौनिहालों के कौतूहल का ठिकाना क्या !
स्वेटर लम्बा होता जाता ।
सलाइयों का मंतर चलता जाता ।
एक अनोखा अजूबा था !
अलादीन के चिराग से कम ना था !
ऐसा तिलिस्मी था जादू बुनने वालों की
उँगलियों और सलाइयों का !
डिज़ाइन आप ही बनता जाता था !
जो चाहे उनसे बनाने को कह दो !
अब ना वो बचपन रहा ना बचपन का भोलापन ।
ना सर पर रहा दादी, नानी, मौसी, बुआ का आँचल ।
पर अब भी उनके हाथ का बुना स्वेटर,
जाड़ों में बहुत गरमाता और पुचकारता है ।
ममता से सर पर रखा हाथ बहुत याद आता है ।
उनकी थपकियों,लोरियों,कहानियों वाली नरम गोद में,
निश्चिन्त सोने का एहसास कराता है,
अपने बड़ों के हाथों का बुना स्वेटर ।