शनिवार, 13 सितंबर 2014

बच्चों का चेहरा



शर्मिष्ठा शर्मा ..
उम्र पैंतीस के लगभग,
बारह वर्ष नौकरी का अनुभव,
कद-काठी सामान्य .
रोज़ सुबह
जैसे ही स्कूल बस जाये,
हैवरसैक सीने से चिपकाये,
धड़धड़ाती हुई रेल की तरह
लोकल ट्रेन पकड़ने
घर से कूच करती है..    
जैसे मार्चिंग ऑर्डर्स मिले हों .

एक नदी की तेज़ धार,
भीड़ के अपार समुद्र में
समा जाती है .
हाथ-पाँव मारते हुए,
अपनी जगह बनाते हुए,
ख़ुद को साधना पड़ता है
तीर की तरह तन कर ..
पैना बन कर .

यात्रा का पहला चरण तय कर,
आगे बढती है बस पर चढ़ कर .
जद्दोजहद यहाँ भी नहीं कम पर .
  
जिन्हें काम की लत लगी,
उन्हें काम की कमी नहीं.
दिन भर हुआ काम,
फिर हो गई शाम .

शाम को भी वही दस्तूर,
आख़िर बस्ती है बहुत दूर .
पैदल परेड करते हुए,
बस में फांस की तरह फंसे हुए,
ट्रेन में मल्लयुद्ध करते हुए .

युद्धस्तर पर जीते हुए,
कैसे हर दिन फिर दोबारा,
तैनात हो जाती है 
               शर्मिष्ठा शर्मा ?
शाम तक शरीर का 
ईंधन चुकते-चुकते,
क्यूँकर इसके 
           पाँव नहीं थकते ?
घर लौटने तक,
किस खुराक पर
सरपट दौड़ती है
             शर्मिष्ठा शर्मा ?

एक दिन उससे पूछा था,
तो उसने जवाब दिया था ..
सुबह मुझे रहती है जल्दी,
आजीविका कमाने की .

घर लौटते हुए,
मन में प्रबल
एकमात्र इच्छा,
जल्दी से जल्दी
देखना होता है
            बच्चों का चेहरा .
सुननी होती हैं
            उनकी बातें,
जी चुरा लेती हैं
             उनकी शरारतें .

सारी दुश्वारियों से   
भिड़ जाती है   
            शर्मिष्ठा शर्मा ,
क्योंकि उसे 
देखना होता है
            अपने बच्चों का चेहरा .                    





शनिवार, 30 अगस्त 2014

गणपति बप्पा मोरया

हर मुम्बईकर के पिता,
गणपति बप्पा मोरया ।
इनका उत्सव आया,
चतुर्दिक हर्ष छाया !

शिल्पकार की मुखर हो उठी कल्पना,
बप्पा को अनेक रूपों में देखा ।

किसी ने उन्हें मुनीमजी बनाया,
किसी ने स्कूल का यूनिफार्म पहनाया ।
किसी ने हाथों में वाद्य थमाया,
किसी ने पग में नूपुर बाँधा ।

कभी हाथ में पुस्तक,
कभी नृत्य को उत्सुक,
बप्पा ने सबका मन बहलाया,
सिर पर रखा हाथ मस्तक सहलाया ।

बप्पा के चरणों पर शीश नवाऊँ,
बप्पा की गोद में सिर रख सो जाऊं ..
                       तो चैन पाऊं,
                       बप्पा के गुण गाऊं ।

भाव विभोर हो मन कह उठा,
बप्पा हमको आशीष देना ।


रविवार, 24 अगस्त 2014

अनुभव



आज दफ़्तर को जाते हुए,
एक अजब किस्सा हुआ ।

मोटरों की चिल्ल-पों, 
भीड़ भरे रास्तों 
के ठीक बीचों-बीच,
बस स्टॉप के रास्ते पर 
चलते-चलते अचानक देखा  . . 
एक गिलहरी, 
अनायास ही ,
मेरा रास्ता 
पार कर गयी ।
  
कंक्रीट का जंगल 
देखता रह गया ।

कुछ पल के लिए 
वहाँ कोई ना था ,
ना रास्ता ,
ना बाकी दुनिया से वास्ता ।

एक कोमल पल ठहर गया ।
एक सुखद अनुभव हुआ ।
और बाँटने का मन हुआ ।