बुधवार, 24 जुलाई 2013

मन




मन को क्यों 
बंधक 
रखा है तुमने ?

मन को 
मुक्त कर दो. 

इस नन्हे से 
पाखी को
नभ की ऊँचाई 
नापने दो,
जीवन की गहराई
जानने दो. 

उसके पंखों में 
है कितनी उड़ान . .  
परखने दो. 


     

खिड़की



खोल दो 
मन की खिड़की । 
बाहर की 
हवा आने दो . 

खिड़की के हिस्से का 
आसमान 
धूप के रास्ते
उतर आने दो 
ज़मीन पर . 

धूल, धुंआ , बारिश की बौछार ,
मिटटी की महक 
बस जाने दो 
भीतर . 

खिड़की का खुलना 
है एक प्रबल संभावना,
जीवन के चमत्कार की 
झलक मिल जाने की .    




शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

महक




किसी भी 
गाँव, गली, कूचे में 
अचानक, 
बचपन की महक 
चुपके से आ कर
लिपट जाती है ।
वैसे, 
ठीक-ठाक कहना 
मुश्किल है,
क्या अभिप्राय है 
'महक' से ।

शायद ये 
बारिश की पहली 
बौछार के बाद की 
मिट्टी की 
सौंधी - सौंधी 
महक है ।
या चूल्हे पर सिकती, 
अम्मा के हाथ की 
करारी रोटी की, 
भूख जगाती 
महक है ।
या फिर 
मंदिर में मिले 
प्रसाद के दोने की 
मीठी महक है ।
कौन जाने 
शायद ये 
दोपहर भर खेलने के 
बाद पसीने से भीगी 
कमीज़ की 
नमकीन सी 
महक है ।

कुछ चीज़ें 
बिना नाम के भी 
पहचानी जाती हैं ।
कभी - कभी 
यूँ ही 
दस्तक दे जाती हैं ।