रविवार, 2 अक्तूबर 2022

आचरण में अनुसरण


बापू से और शास्त्री जी से
हमने पूछे अनगिनत सवाल ।
मंडवा कर चित्र आदमकद
सादर दिया खूंटी पर टांग ।
प्रतिमा भव्य गढ़वा कर
सङक किनारे कर अनावरण
बाकायदा किया दरकिनार ।
निबंध लिखो बढ़िया-सा बच्चों !
नंबर पाओ शानदार !
दिवस मनाओ ज़ोर-शोर से !
करो बङी-सी सेमिनार !
और भूल जाओ उसके बाद ।
महापुरुषों की विचारधारा 
ग़लती से भी बरखुरदार ! 
दिल पर मत ले लेना !
हो जाएगा सत्यानाश !
आदर्श मानवों को देखो
ताक पे रखा जाता है !
उनके जीवन से सीख कर
कौन जीवन जीता है !
ठोक-ठोक कर समझाया !
विसंगतियों का भय दिखाया !
पर मान गए बापू तुमको !
और शास्त्री जी के क़द को !
मुट्ठी भर ही होंगे ऐसे
एकनिष्ठ एकलव्य सरीखे 
जो चले तुम्हारे रास्ते ,
और अपने स्वाध्याय के 
बीज राह में बोते चले ।
ये मौन धरे कर्मठ योगी
भारत माँ के चरणों में 
अर्पित कर अपनी मेधा
अखंड यज्ञ करते रहे ।
ये करते नहीं नुक्ताचीनी ।
जो सीख सके जो समझ सके
अपने जीवन में पिरोते रहे ।
 
 
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷

चित्र अंतरजाल के सौजन्य से 

सोमवार, 26 सितंबर 2022

भीगना ज़रूरी है


भीगना ज़रूरी है ।
मूसलाधार बारिश में ।
रिमझिम बरसती 
बूँदों की आङ में 
रो लेना भी ज़रूरी है ।
धुल जाते हैं 
ह्रदय में उलझे द्वन्द, 
छल और प्रपंच 
जिनकी मार 
दिखाई नहीं देती ।

भीगना ज़रूरी है ।
भावनाओं की बौछार में ।
अपनों के दुलार में ।

भीगना ज़रूरी है ।
थुल जाते हैं आँगन चौबारे ।
सोच के धूल भरे गलियारे ।

भीगना ज़रूरी है ।
घर से बाहर निकल आना
बिना छाते-बरसाती के, 
मुक्त होना भीगने के डर से ।

अपने आप को बहने देना 
वर्षा के जल में,
और लबालब भर देना
रीते कोने बरसाती गढ्ढे ।

भीगना ज़रूरी है ।
यह जानने के लिए कि
कौन कितने पानी में है,
और किस-किसको
आता है तैरना ।

भीगना ज़रूरी है ।
आनंद और उल्लास में ।
प्रकृति के हास में ।
जिससे नम हो मन की मिट्टी 
जिसमें खिलें फूल ही फूल ।

***************************
चित्र सौजन्य : श्री अनमोल माथुर

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

मातृभाषा माँ है



मातृभाषा माँ है ।
धमनियों में बहती है ।
हृदय में धङकती है ।
श्वास में बसती है ।
शब्दों में व्यक्त होती है ।

मातृभाषा माँ है ।
चुनी नहीं जाती है ।
विकल्प नहीं है । 
शाश्वत सत्य है ।
अंतिम अवलंब है ।

मातृभाषा माँ है ।
अभिव्यक्ति का श्रृंगार है ।
अनुभूति का अनुनाद है ।
जीवन का व्यवहार है ।
जन्मसिद्ध अधिकार है ।

मातृभाषा माँ है ।
अवचेतन में प्रतिष्ठित,
जननी का दुलार है ।
परदेस में ताबीज़ है ।
अपनी पहचान है ।

मातृभाषा माँ है ।
भावनाओं का विश्वकोष,
प्रथम भाव संस्कार है ।
व्यक्तित्व का प्रतिबिंब, 
अस्तित्व का आधार है ।

÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
चित्र साभार अंतरजाल 


गुरुवार, 8 सितंबर 2022

छायादार रास्ते

तुमने वो रास्ते देखे हैं ..
जिनके किनारे - किनारे 
घने पेङ होते हैं ?
बीच में होता है रास्ता 
माँग जैसा ।
इस रास्ते के बीचों-बीच 
खङे होकर ऊपर देखो
तो ऐसा लगता है,
मानो दोनों वृक्षों ने
थाम लिया हो
एक-दूसरे को,
गले मिल रहे हों 
दोस्त, हमख़याल ।
जैसे बचपन में 
ठीक इसी तरह
हाथ पकङ कर
पुल बनाया जाता था,
नीचे से रेल गुज़रती थी,
कमीज़, फ़्राक पकङे हुए 
सरकते रेल के डिब्बे बने
सीटी बजाते छुक-छुक करते !
कभी लगता है घर के बङे
झुक कर हवा झलते हुए
दे रहे हों आशीर्वाद ।
अकस्मात ऐसा कोई रास्ता 
चलते-चलते मिल जाए तुम्हें 
तो ज़रूर बताना ।
घर के बच्चों को मुझे 
ऐसे रास्तों पर है चलाना ।
ताकि ऐसे रास्तों को बच्चे 
बचा सकें अपने हाथों से,
घनी छाँव की छत्रछाया, 
ठंडी हवा के झोंके और
अदृश्य चिङिया का चहचहाना ।


गुरुवार, 21 जुलाई 2022

फूल खिलते रहेंगे


हम फूल हैं ।
तंग घरों की 
बाल्कनीनुमा
खिङकियों में बसे ।

सलाखों से घिरे हैं 
तो क्या हुआ ?
हर हाल में, हर रंग में, 
खिल रहे हैं तबीयत से ।

अपनी मर्ज़ी से 
ना सही, 
गमलों में ही
जी रहे हैं 
ज़िन्दादिली से !

आख़िर फूल हैं !
मिट्टी में जङें हैं ।
धूप में छने हैं ।
नज़ाकत से पले हैं !
खुश्बू ही तो हैं !

खुश्बू ही तो हैं !
हवाओं में घुल जाएंगे ।
ज़मीं पर बिखर जाएंगे ।
ज़हन में उतर जाएंगे ।

खुश्बू ही तो हैं ।
खयालात में ढल जाएंगे ।
और फिर खिलेंगे ।
आख़िर हम फूल हैं ।
खिलते रहेंगे ।

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

गुरु दक्षिणा


सूर्य रश्मि
आत्मसात कर
फूल खिलते हैं ज्यों,
खिल कर जगत को
खुशबू देते हैं ज्यों ।

सूर्य का प्रखर तेज
अपने अंतर में रोप कर
शीतल भीनी चांदनी ज्यों
चंद्रमा देता है भुवन को ।

सूर्य की भीष्म तपस्या
एकनिष्ठ सेवा
और जीवन यज्ञ देख कर,
छोटा-सा मिट्टी का दीपक
पाता है संबल ।
करता है संकल्प ।
गहन अंधकार को ललकार
अडिग लौ
बन जाता है ज्यों ।

इसी तरह गुरु की वंदना कर
समर्पित की जाती हैं गुरु दक्षिणा ।
इसी तरह दमकती है शिष्य के
व्यक्तित्व में गुरु शिक्षा की आभा ।

कृष्ण ने अर्जुन को दी थी यही शिक्षा ।
अपने जीवन को बना दो कर्म की गीता ।

सुपात्र बनाने के लिए गुरु देते हैं दीक्षा ।
सीख कर सिखाना ही उचित गुरु दक्षिणा ।



सोमवार, 11 जुलाई 2022

बरस रहा है पानी


रात भर बरसा है
मूसलाधार पानी ।
बादलों के मन की
किसी ने न जानी ।
और इधर धरा पर
देखो दूर एक पंछी
जल प्रपात समझ
सबसे ऊंची जगह
ढूंढ ध्यानावस्थित
बैठा है अविचल ।
भीग रहा है निरंतर
सोख रहा है जल
शीतल अविरल ।
संभवतः मौन धर
सुने जा रहा है
बादलों की व्यथा ।

बरस रहा है पानी ।
वर्षा का पानी
लाया ॠतु धानी ।
धरती कितनी तरसी
फिर बरसा पानी
तरलता हुई व्याप्त ।

बारिश की रागिनी
बूँदों की अठखेली
थिरक रही बावली
धिनक धिन-धिन ।
सृष्टि हुई ओझल
बूँदों की तरल झालर
बन गई मानो चूनर ।
धुले समस्त आडंबर ।
स्वच्छ हुआ अंतर्मन ।

अब भी लगातार
वही मूसलाधार
बरस रहा है पानी ।
बहा ले जाएगा
मन की सारी ग्लानि ।
फिर से शुरू कहानी ।
इस बार न डूबेगी
कागज़ की नाव हमारी ।
अंतर मार्जन कर ढुलका दी
बादल ने अपने कहानी ।

बूँदों के बाँध सहस्र नूपुर
घनश्याम कर रहे मयूर नृत्य
धाराप्रवाह बज रहा मृदंग
हर्षित हरित मन उपवन ।
जलमग्न धरा ध्यान मग्न
बूँद-बूँद जल आत्मसात
बिंदु-बिंदु सोख रही मिट्टी ।
अब भी बरस रहा है पानी ।