आत्मसात कर
फूल खिलते हैं ज्यों,
खिल कर जगत को
खुशबू देते हैं ज्यों ।
सूर्य का प्रखर तेज
अपने अंतर में रोप कर
शीतल भीनी चांदनी ज्यों
चंद्रमा देता है भुवन को ।
सूर्य की भीष्म तपस्या
एकनिष्ठ सेवा
और जीवन यज्ञ देख कर,
छोटा-सा मिट्टी का दीपक
पाता है संबल ।
करता है संकल्प ।
गहन अंधकार को ललकार
अडिग लौ
बन जाता है ज्यों ।
इसी तरह गुरु की वंदना कर
समर्पित की जाती हैं गुरु दक्षिणा ।
इसी तरह दमकती है शिष्य के
व्यक्तित्व में गुरु शिक्षा की आभा ।
कृष्ण ने अर्जुन को दी थी यही शिक्षा ।
अपने जीवन को बना दो कर्म की गीता ।
सुपात्र बनाने के लिए गुरु देते हैं दीक्षा ।
सीख कर सिखाना ही उचित गुरु दक्षिणा ।
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