समझ में आया,
जो बहुत पहले
समझाया गया था ।
पर समझ ..
आया नहीं था ।
माँ के मन का अवसाद
उफ़नती नदी समान
आंखों से छलक जाता है ।
जी हल्का हो जाता है,
जैसे रुई का फाहा ।
पोंछ देता है
औलाद की आँखों का
फैला हुआ काजल ।
और हर चोट पर
लगा देता है मरहम ।
बाप के सीने में
उठते हैं कई तूफ़ान ।
घुमड़ते हैं बादल
गरज कर,
बिना बरसे
हो जाते हैं चट्टान ।
आंसू रिस-रिस कर
भीतर ही भीतर
हिला देते हैं जड़ ।
पर व्यक्त नहीं करता
कभी भी बाप ।
विस्तार कर देता है
अपनी व्यथा का ।
बन जाता है वरद हस्त,
विशाल वट वृक्ष..
और विराट आसमान,
जो दूर से चुपचाप
रखता है सबका ध्यान ।
जब बच्चे बनते हैं माँ-बाप,
और किसी बात पर बाप
बच्चों पर उठाता है हाथ,
याद आ जाती है
एक-एक बात ।
बाप उठाता है हाथ
बच्चे की कमज़ोरियों की
बेतरतीब लकीरें
संवारने के लिए ।
झटक देता है बच्चे को दूर
उसे अपने पैरों पे
खड़ा करने के लिए ....
अपने सामने ...
ताकि झटका लगे
तो संभाल सके,
वक़्त रहते बच्चा सीख जाए
माँ-बाप के बिना भी
चलना अकेले
बिना डरे ।
बाप के रूखेपन की तह में
बहती है सरोकार और प्यार की नदी ।
देखना .. शायद कभी दीख जाए
बाप की आंखों में नमी ।