शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

शुभंकर आगमन


अपनी उलझन का सघन वन,

सबके होते हुए भी पथ निर्जन ।

शून्य सम्मोहन वश जैसे बेबस,

बस काष्ठवत मन ढो रहा जीवन ।


सहसा सुना कहीं भारी कोलाहल ,

ढोल बजाता हुआ जन समूह मगन !

और उनके बीच रथारुढ़ बप्पा स्वयं,

कोटि सूर्य समान शुभंकर आगमन ।


जाने कितनी ही बार मेरा हुआ मन,

पिता की विशाल गोद में सिर रख ,

सो जाऊं निश्चिंत भूल कर सब द्वंद 

मिले श्री चरणों में शरण अवलंबन ।


इतनी दूर से भी देख, गए सब जान,

ध्यान रख मेरी सदा तुझ पर है नज़र !

करुणामयी दृष्टि ने हर लिए सब विघ्न,

टूटी तंद्रा, सजग चेतना, दृढ़ मनोबल ।


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