उससे बङी नहीं है हमारी व्यथा ।
पर क्या उतनी ही दृढ़ है निष्ठा ?
खंबे से प्रकट हो प्रभु ने मान रखा ।
हिरण्यकशिपु हम सब में ही रहता ।
सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ सदा डसता ।
अहंकार और श्रेष्ठता का है नाता ।
तप से पाया तेज भी क्षीण हो जाता ।
संकट में भक्त प्रह्लाद को जब देखा ।
नारायण ने वरदहस्त शीश पर रखा ।
पिता ने पूछा भगवान खंबे में है क्या ?
केशव ने खंबे से नृसिंह अवतार लिया ।
ना नर और ना ही पूरा सिंह स्वरुप था ।
वरदान के कवच से परे दृष्टिगोचर था ।
ना धरती, ना आकाश,स्वर्ग ना पाताल,
नारायण की जंघा पर हिरण्यकशिपु था ।
ना भीतर, ना बाहर,काल उपस्थित था,
मर्यादा लांघी जिसकी, वह ड्योढ़ी थी ।
ना दिन था, ना रात, वह संधिकाल था ।
अस्त्र ना शस्त्र, नख पर मृत्यु लिखी थी ।
भक्त का अपमान प्रभु को कहाँ सहन था ।
प्रह्लाद को केशव का एकमात्र अवलंब था ।
निष्याप ह्वदय की भक्ति अभेद्य कवच है ।
भक्ति का अभय वरदान करावलंबन है ।
छायाचित्र : श्री रंग जी मंदिर, वृन्दावन से साभार ।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 23 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंश्री नृसिंह देवायः नमः
सादर वंदन
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंअति सारगर्भित 👌🏻👌🏻सच्ची भक्ति प्रभु को साक्षात प्रकट कर देती है 🙏🙏
जवाब देंहटाएं