अनायास ही
सुगंध आई,
खिङकी के
पास से
गुज़रते हुए ।
भीनी सी
दस्तक देकर
छुप गई..
कुछ देर हुई
छुपा-छुपी..
फिर सुगंध की
उंगली पकङ ली,
बाहर झुक कर
देखा जो अभी
खिल गई थी
मोगरे की कली,
रात में ही
मानो चाँदनी ।
ख़बर दे रही थी,
अपना परिचय
भेज कर ।
जैसे आदमी की
शख्सियत
सूरत नहीं,
तय करती है सीरत,
ठीक ऐसे ही
सिर्फ़ रुप से नहीं,
फूल की पहचान
होती है उसकी
सुगंध से ही ।
मंगलवार, 14 मई 2024
सुगंध से जाना
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मुआफी चाहेंगे | बहुत सुन्दर सृजन है | सुगंध जरूरी है | हम बेकार में ही दुर्गन्ध से जूझ रहे है देश के सन्दर्भ में |
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 16 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमोगरे की कली सी मोहक कविता
जवाब देंहटाएंसच है ... फूल अपनी पहचान चाहता भी ऐसे ही है ...
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