फिर एक बार वही हुआ माँ
जो होता आया है बार-बार।
दिन तुम्हारी अष्टमी पूजा का,
अवसर उत्सव कन्या पूजन का,
जी में उत्साह नहीं रत्ती भर का,
दरस तुम्हारी तेजोमयी भंगिमा का
झंकृत कर देता चेतना के तार,
पर सूझता न था कौनसा खोलूँ द्वार,
निविङ अंधकार ह्रदय में नहीं उजास..
सम्मुख होकर भी माँ तुम नहीं पास ।
खिन्नमना पा न सकी तुम्हारी करूणा ।
इसी समय वह कन्या आई पहली बार
सरल, मुखर और उसके मुख पर हास।
आर्द्र करता भुवन,भोलापन बालिका का ।
अनायास ही काग़ज़ उठाया और बनाया
उससे भी बनवाया छोटा-सा बुकमार्क।
जिस बिटिया को बार-बार कर याद
छलछलाते थे नयन, भर आता था मन,
उसी की पुनरावृति मानो हुई साकार,
बुझती हुई लौ को जगाती बार-बार।
अस्वीकार और स्वीकार के मध्य
भूल कर अवसाद और तिरस्कार का प्रहार
मन फिर हो गया, प्यार लुटाने को तैयार ।
झरने की सहज गति, उसका मुक्त प्रवाह
चट्टानों पर गिरती टूट कर जल की धार
टूटती नहीं, बिखर कर बन जाती फुहार ।
टूटना-बिखरना यदि जीवन की दक्षिणा
तो जैसा तुम ठीक जानो..मनोबल दो माँ।
मार्मिक
जवाब देंहटाएंनमस्ते, ओंकार जी. प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार.
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, ओंकार जी. नमस्ते.
हटाएंबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति , आपके दुख का अन्दाजा लग गया ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, शारदा जी. नमस्ते पर आपका स्वागत है. आती रहिएगा.
हटाएंहार्दिक धन्यवाद, शारदा जी ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 23 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंमार्मिक रचना, दिल को छू गई।
जवाब देंहटाएंमाँ से कही बात अक्सर मार्मिक हो ही जाती है । धन्यवाद, रुपा जी ।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद, हरीश जी ।
जवाब देंहटाएं