एक नदी बहती है कल कल
हम सबके मन के भीतर कहीं,
अपना रास्ता तराशती हुई,
दो पाटों को जोङती-घटाती,
सदियों का हिसाब-किताब
चुकता करती जाती निरंतर ..
बकाया किसी का नहीं रखती ।
कभी पलट कर नहीं देखती नदी,
सब कुछ बहा ले जाती नदी ।
फिर हम क्यों पालें मनमुटाव
करें अपनों से ही दुराव-छिपाव ?
क्यों रोकें बहती नदी का बहाव
और खेते रहें टूटी हुई नाव ?
क्योंकि समय नहीं करता लिहाज ।
वक्त बहुत जल्द जाता है बीत,
पीछे छूट जाते हैं मनमीत।
इससे पहले कि जाए उतर
घाट का पानी ..क्यों न हम
कर लें बूँद-बूँद का आचमन,
जिससे छलकता रहे क्षीरसागर
और रिश्तों की ज़मीन रहे नम ।
बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, ओंकारजी .
हटाएंकल कल बहती नदिया सारे मन भेद को भी मिटा देगी, जैसे राइटर्स ब्लॉक मिटा दिया 😊
जवाब देंहटाएंअनाम पाठक, धन्यवाद. एवमस्तु.
जवाब देंहटाएंवाह.. बहुत सुंदर..😊
जवाब देंहटाएंवाह, सुन्दर रचना
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