रविवार, 1 मई 2022

मज़दूर के हाथों में


एक मज़दूर के
खुरदुरे हाथों की 
गहरी लकीरों में 
खुदी होती है 
समाज की नींव ।

उसके मज़बूत 
कंधों पर
टिकी होती हैं, 
सभ्य समाज की
आलीशान इमारतें,
और वो दीवारें 
जो हम खङी करते हैं, 
उनके और अपने
बीच में ।

रोज़ फेरी लगाता है 
कर्मों का देवता,
जब झुटपुटा-सा 
होता है,
जब जलते चूल्हे की 
मध्यम रोशनी में 
कौंधते हैं,
मज़दूर परिवार के
मेहनत से तपे बदन ।
एक हल्की-सी मुस्कान 
जैसे दूज का चांद ।
शुक्र है ऊपरवाले का
हाथ-पांव सही सलामत 
रोटी खा कर तान चादर
नींद में बेसुध सोता है।
उधर ऊंचे मकानों में 
कुछ इंसान तङपते हैं 
एक अदद नींद के लिए ।

देवता सब देखता है ,
माथा सहला कर कहता है,
समाज को उतना ही मिलता है 
जितना वो मेहनत करने वाले
श्रमिक को पारिश्रमिक, आदर,
सुरक्षा और खुशहाली देता है ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 03 मई 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बङी सखी, विनम्र आभार ।
      कल होगा साक्षात्कार ।

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  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. समाज को उतना ही मिलता है
    जितना वो मेहनत करने वाले
    श्रमिक को पारिश्रमिक, आदर,
    सुरक्षा और खुशहाली देता है

    बहुत सुंदर! श्रमिकों के बिना कोई समाज बच नहीं सकता, उन्हें उनका हक़ मिलना ही चाहिए

    जवाब देंहटाएं

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