और दिनों के मुक़ाबले,
बस खाली थी
और सरपट जा रही थी ।
दफ्तर वक़्त पर पहुँचने की
उम्मीद थी ।
बैठने को मिल गया ,
तो ध्यान दूसरी तरफ गया . .
अख़बार की सुर्खियाँ टटोलने लगा ।
हर सिम्त बात वही ,
पेशावर के स्कूल की ।
एक स्टॉप पर बस जो रुकी,
हँसती - खिलखिलाती,
बल्कि चहचहाती ,
स्कूल की बच्चियाँ चढ़ गयीं ।
इतनी सारी थीं
कि बस भर गयी !
स्कूल यूनिफार्म पहने,
बस्ते लिए ,
और उनकी दोहरी चोटियों पे
बने हुए थे,
सफ़ेद रिबन के फूल ।
सारी बस जैसे बन गयी थी बगिया,
जिसमें खिले थे अनगिनत
सफ़ेद रिबन के फूल ।
बस ब्रेक लगाती,
तो लड़कियाँ एक दूसरे पर गिर पड़तीं ।
उनमें से एक कहती . .
फिसलपट्टी है !
और फिस्स से हँस देती ।
एक हँसती . . उसके हँसते ही
हँसी की लहर बन जाती ।
दुनिया से बेख़बर
उनकी खुसर - फुसर ,
आँखों में चमक ,
बतरस की चहल - पहल ,
सारी की सारी बस में समा गयी ।
या बस उनमें समा गयी ।
बस कंडक्टर ने आवाज़ लगायी,
चारों तरफ नज़र घुमाई,
अब टिकट कौन लेगा भई !
जवाब में फिर सब हँस पड़ीं ,
जैसे बहे पहाड़ी नदी ।
इस लहर - हिलोर में मन में आया कहीं
भगवान ना करे . .
इनकी हँसी पर,
इन सफ़ेद फूलों पर
हमला करे कोई . .
नहीं ! कभी भी नहीं !
ऐसा ख़याल भी मन में लाना नहीं !
इन बच्चियों की हँसी
दिन पर दिन परवान चढ़े ।
यूँ ही चलते रहें
हँसी के सिलसिले !
हर तरफ़ खिलते रहें !
सलामत रहें !
सफ़ेद रिबन के फूल ।
Bahut badiya kavita hai man ki baat kehti .
जवाब देंहटाएंआकर्षक दृश्यबिम्ब, सच्ची कामना |
जवाब देंहटाएंGood thoughts..
जवाब देंहटाएंGOOD THOUGHTS
जवाब देंहटाएंbehatreen !
जवाब देंहटाएंलो कर लो बात। इस कविता पर कोई अब क्या कमेन्ट करे भला। वाह वाह। बहुत अच्छा। अति उत्तम। बस यही सब लिखा जा सकता है। सामाजिक विषय है। समाज का क्या है? आह आह, वाह वाह करता है। फिर भूल जाता है। हम भी तो समाज के लिये ही जीते हैं न। तो इसी एक आह, एक वाह के चक्कर में लगे रहते हैं रात दिन। इसी से दिल ख़ुश होता है। मगर यह दिल की नहीं, दिमाग़ की उपज है। एक साफ़ दिल अपनी ख़ुशी के लिये मासूम बच्चियों पर हमला नहीं करायेगा। कभी भी नहीं। ख़्याल में भी नहीं।
जवाब देंहटाएंएक बार टी.वी. पर उन कुछ बच्चियों को दिखा रहे थे जो उस समय मलाला के साथ थीं, जब उसको गोली मारी गई थी। या कुछ उसके उसी स्कूल की थीं। उन बच्चियों के चेहरे पर हंसी थी, डर नहीं था। आँखों में चमक थी। उनके बालों में भी रिबन थे शायद। और ज़ाहिर सी बात है, बिना कहे वह यही कह रही थीं – हम तो फूल हैं। मसल दो। हम फिर से खिल जायेंगे। मसलने वाले हाथ ख़त्म हो जायेंगे एक दिन। मगर फूल फिर भी खिलते रहेंगे।
हमारा दुश्मन हमसे बाहर नहीं, हमारे अंदर है। हमारा यह डर। हम श्री कृष्ण से हैं। हम प्रेम से हैं। हम अमर हैं। मगर शैतान नहीं। वह समाप्त होगा, हम नहीं। इस बच्चियों की हंसी नहीं। कभी नहीं। अब तुम कहोगी कि मैं अपनी आँखें बंद किये बैठा हूँ। मुझे कुछ दिखता नहीं। नहीं, मेरी आँखें खुली हैं। मुझे सब दिखता है। इतने अन्याय, इतने आतंक का अर्थ क्या है? अर्थ बहुत सीधा है। पाप का घड़ा जल्दी जल्दी भरा जा रहा है। अब वह उतरना चाह रहा है। एक बार फिर से। हमारे लिये। हमारे प्रेम में। वह फिर से इस ज़मीन को, हमारी माँ को, अपने कदमों से पाक करेगा। और इन फूलों को हमेशा के लिये अमर कर देगा।
अब एक राज़ की बात बताऊँ। फूल तो पहले से ही अमर हैं। मसलने वाले मसलते रहे। हम खिलते रहेंगे। हम हँसते रहेंगे। हमारी इस हंसी में ही उन मसलने वाले हाथों की हार है।
ख़ुश रहो बिटिया। लिखती रहो।
जवाब देंहटाएंशहनाज़ इमरानी साहिबा , दीपेन्द्र शिवाच जी ,
सोहन कुमारजी, anonymous और ॐ प्रकाश शर्माजी आप सबका बहुत बहुत आभार .. पढने के लिए और सराहने के लिए .
उम्मीद है आप सब पढना जारी रखेंगे और अपने विचार साझा करते रहेंगे . धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंशम्स साहब ! सही कहा आपने . .
"फूल खिलते रहेंगे दुनिया में ,
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ."
इन फूलों की खुशबू पे सदके हज़ार जानें !
दुआ है ..फूलों को किसी की नज़र न लगे .
और फूल् खिलते रहें . आमीन .
शुक्रिया , शम्स साहब .
नूपुर