तुम्हें लगता है तुम्हारा दुख सबसे बङा है.
मुझे भी लगता है कि मेरा दुख सबसे बङा है.
क्यों ना लगे ?
आखिर जिस पर बीतती है,
वो ही तो जानता है !
ठीक है.
तर्क बेहतरीन है.
लेकिन फिर ये बताओ...
आदमी बङा है ?
या उसका दुख बङा है ?
आदमी बङा है ?
या चुप करा देने वाला
तर्क बङा है ?
लगता तो ऐसा है कि
जब दुख आदमी का
उससे भी बङा हो जाता है,
तब अपने ही दुख के मुकाबले
खुद आदमी छोटा हो जाता है;
जैसे घने कोहरे में
रास्ता
छुप जाता है,
खो जाता है.
भूल जाता है आदमी,
कि कभी ना कभी
करवट बदलेगी ज़िंदगी.
धूप निकलेगी,
दुख के कोहरे को
समेट लेगी.
हालात की ज़मीन पर
घुटने जो टेक दे,
वो दुख होता है.
दुख में दूसरे का
सहारा बन कर
सीधा सचेत खङा रहे,
वो आदमी होता है.
तुम्हारा हो,
या मेरा हो,
दुख तो दुख होता है.
कितना भी बङा हो
दुख तेरा या मेरा,
अपने दुख से बङा
खुद आदमी होता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कुछ अपने मन की भी कहिए