रविवार, 3 अप्रैल 2011


आघात

सदमा पहुंचना किसे कहते हैं, मुझे नहीं पता. 
हलाल होना क्या होता है, मैंने नहीं देखा.

शायद
धीरे-धीरे
अस्तित्व में दरारें पड़ना,
सदमा कहलाता होगा .

शायद
बार-बार
भरोसे का टूटना,
हलाल होना होता होगा.

क्यों ?
इस शब्द का विशलेषण ही
एहसास की 
कमर तोड़ देता होगा .

इस सारे झमेले के बीच
भावुक मन ही
पागल करार दिया जाता होगा .

सोच का बारूद फटना ही
पागलपन होता होगा,
शायद.

नियति का संवेदनहीन
प्रहार ही
विश्वासघात का दूसरा
नाम होगा .
शायद.

ऐसी परिस्थिति में
हे ईश्वर तुमसे ..
प्रार्थना क्या करूँ ?
तुमसे क्या मांगूं ?

अभय का वरदान ?
पर मैं तो देवता नहीं हूँ.
पौराणिक चरित्र भी नहीं हूँ.
मनुष्य के
मन की मिट्टी में
संवेदना की खाद
तुम्ही ने तो डाली है .

द्वन्द अंतरतम का
मन की पीड़ा का
अंकुर बन कर फूटेगा ही.
पौधा पनपेगा ही.

पर इतना तो करो -
फल कड़वा न हो .
फूलों की खुशबू कम ना हो .
पेड़ का तना कमज़ोर ना हो.  

कोई भी
आघात
जड़ें खोद न पाये मेरी .

भले ही
आघात पर आघात हो.
भले ही
सब कुछ मेरा
टूट कर
गया हो बिखर
भीतर ही भीतर.

फिर भी
ह्रदय का स्पंदन,
मेरा पागल मन,
स्वस्थ चिंतन,
बचा रहे.
जैसा था,
वैसा ही रहे.

क्योंकि
पतझड़ का 
बार-बार आना,
मौसम का बदलना,
वार पर वार होना,
सह लेगा मेरा मन.

पर जब तक जीवन है,
जीवन का कुछ प्रयोजन है,
ह्रदय मेरा 
सूखा ठूंठ
हो कर 
न रह जाये,
संवेदनहीन 
ना हो जाये.

इतनी कृपा करना -
आत्मसम्मान मेरा
आत्मबोध की भूमि पर
अडिग रहे.
वटवृक्ष बन कर
छाया देता रहे.

मनोबल मेरा
आघात भवितव्य का 
सहे
पर अपनी ज़िद पर अड़ा रहे. 

सीधा खड़ा रहे.




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