रविवार, 12 अप्रैल 2009

चंद्रमा

सुना है..
सुना क्या है
सच ये है कि
चाँद
एक उबड़-खाबड़ पथरीली
सतह है
जिसकी अपनी
रोशनी भी नहीं,
उधार खाते की है
इसकी चांदनी भी

चांदनी -
समंदर की लहरों से खेलती
नदी किनारे चुपचाप बैठी सोचती
पत्तियों से छन-छन कर छलकती,
शरद पूर्णिमा की रात्रि
छत पर चुपके से
आती सौंधी-सौंधी खीर चखने,
सिर पर जिनके
छत नहीं..
पार्क की बेंच पर
फुटपाथ पर
खेत की मेंड़ पर
थक कर पसरे
दुखियारों को
थपथपा कर सुलाती..

..तो क्या हुआ कि
सूरज से लेकर ही सही,
चंद्रमा ने चांदनी दी तो है

चाँद -
नौनिहालों का चंदा मामा
चांदनी का हिंडोला
खेलना हो तो लगे जैसे झूला
और कभी बताशा दूधिया
कभी दूध का कटोरा
कभी माँ के माथे की
चमकती बिंदिया

शिवजी की
जटिल जटाओं पर
दमकता
ईद के चाँद सा,
कवि की कल्पना के आकाश का
सिरमौर

चंद्रमा

कभी किसी की याद दिलाता
कभी मन का मीत बन जाता
कोई चंद्रमा की पूजा करता
कोई दुःख-सुख का साथी बनाता

दो और दो की विवेचना में कुछ और
भावुक मन की अनुभूति कहती कुछ और

नज़रिए की बात है
चाँद सबके साथ है

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