गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

खिङकी खुली रखना


खिङकी

खुली रहने दो ।

आने दो हवा

आने दो धूप

खिलने दो फूल,

आने दो सुगंध ।


खुली रहने दो

खिङकी ..

धूल-मिट्टी आएगी

आने दो ।

सूखे पत्ते लाएगी

लाने दो ।

बुहार देना ।

पर खिङकी

खुली रहने देना ।


खुली होगी खिङकी

तो दीखेगा आसमान 

कभी-कभी चाँद 

और शीतल चाँदनी ।

तारों भरी ओढ़नी 

किसी छज्जे पे अटकी,

कहीं दूर से आती

किसी की मीठी

आवाज़ में रागिनी ।


खुली रखो खिङकी .. 

माना खङखङाएगी

जब आंधी आएगी,

सङक का शोर 

कोई अनचाही गंध

बेमज़ा संगीत 

पङोस के क्लेश,

ये सब भी देंगे दखल,

ध्यान मत देना ।

खिङकी खुली रखना ।


खिङकी खुली रखना ..

कहीं लौट ना जाए 

खिङकी तक आया 

नवल वसंत ।

लौट न जाए गौरैया

जो दाना चुगना

और चहचहाना

चाहती थी रुक कर

इस खिङकी पर ।

कहीं बाहर ही 

ना रह जाए 

बूंदों की फुहार

ठंडी बयार,

मुँह फेर कर

चला ना जाए 

जल छलकाता बादल ।


एक जीवन वह जो

चलता है समानांतर 

खिङकी से बाहर, 

एक जीवन वह जो

रहता है अपने भीतर। 

होना दोनों का सम पर

जोङ दे ह्रदय के टूटे तार ..

बनी रहे यह संभावना 

इसलिए सदा रखना,

खिङकी खुली ।

 

खिड़की खुली रखना

ताकि भीतर आ सके 

धूप, धूल, हवा ,पानी ,

और अच्छे विचार


गुरुवार, 21 मार्च 2024

जिसे कहते हैं कविता


कमल दल पर ठहरी

ओस की पारदर्शी 

प्रच्छन्न बूंदों में ,

चेहरे की नमकीनियत में,

मिट्टी की नमी में, 

मेहनत के पसीने में, 

ठंडी छाछ में, 

गन्ने के गुङ में, 

माखन-मिसरी में,

मधुर गान में, 

मुरली की तान में, 

मृग की कस्तूरी में, 

फूलों के पराग में, 

माँ की लोरी में, 

वीरों के लहू में, 

मनुष्य के हृदय में 

जो तरल होकर 

बहता है, 

उसे कहते हैं हम

कविता ।



गौरैया का शगुन


दिन प्रतिदिन तुम आओ ।

चहचहा कर मुझे जगाओ ।

ह्रदय स्पंदन में बस जाओ ।

गौरैया जीवन गान गाओ ।


घर की चहल-पहल हो तुम ।

हरीतिमा की दूत हो तुम ।

खुशहाली की नब्ज़ हो तुम ।

आत्मीय आगन्तुक हो तुम ।


घर मेरा छोङ के मत जाना ।

दाना चुगने हर दिन आना ।

प्याऊ जान जल पीने आना ।

नीङ निडर हो यहीं बनाना ।


सृष्टि की सचेत गुहार हो तुम ।

नन्ही खुशी की हिलोर हो तुम ।

हम जैसी ही साधारण हो तुम  ।

प्रभात का प्रथम शगुन हो तुम ।