शनिवार, 14 सितंबर 2019

अपनी लगती है हिंदी



हिंदी
भाषा नहीं
नदी है,
जो अविरल
बहती है,
गंगा यमुना
कावेरी गोदावरी
चेनाब रावी
ब्रह्मपुत्र की तरह
देश भर की
यात्रा करती हुई,
हर तट से
गले मिलती,
सुख-दुख बटोरती,
लोक संस्कृति
और बोली
समेटती हुई,
बहती ही जाती है ।


यह भाषा ऐसी है ।
सबको अपनाती है ।
अपनी लगती है ।

जैसे नदियां जोड़ती हैं,
सारे देश की कड़ी
स्नायुतंत्र की भांति,
धमनियों में हृदय की
धड़कती है हिंदी ।

बुधवार, 11 सितंबर 2019

इच्छाशक्ति



मेघों से आच्छादित आकाश में 
जब अनायास खिलता है इंद्रधनुष
जल की बूंदों से छन कर आती
सूर्य रश्मि के प्रखर तेज को ही
कहते हैं इच्छाशक्ति ।


दुख से जकड़े घोर अंधकार में
जब सब हो जाता छिन्न-भिन्न
हारा मन होता टूक-टूक हो मूक
आस का दीप बने जीवट को ही
कहते हैं इच्छाशक्ति ।


दुर्घटना की असह्य विडंबना में
श्वास जब बूंद भर तन में रह जाए
तब झंझावत में डटी अडिग लौ सम
प्राण जगाने वाले मनोबल को ही
कहते हैं इच्छाशक्ति ।


बुधवार, 4 सितंबर 2019

वंदनवार



एक दिन अकस्मात
झर गए यदि सब पात 
ऐसा आये प्रचंड झंझावात.. 

ना जाने क्या होगा तब ?
सोच कर ह्रदय होता कम्पित।

सुखी टहनियों पर कौन गाता गीत ?
सूने ठूंठ पर कौन बनाता नीड़ ?
रीते वृक्ष का कोई क्यों हो मीत ?

क्या कभी हो पायेगा संभव ऐसा ?
ठूंठ की जड़ में जाग्रत हो चेतना।
प्राण का संचार हो शाखाओं में ऐसा
लौट आये बेरंग डालियों पर हरीतिमा।

कोई पंछी राह भूले पथिक सा 
संध्या समय आन बैठे विस्मित सा।  
अनायास ही छेड़ दे कोई राग ऐसा 
धूप और वर्षा की बूंदों के शगुन का। 
दृढ विश्वास के नव पल्लवों की हो ऐसी छटा 
पात-पात शोभित हो वन्दनवार सरीखा। 


रविवार, 1 सितंबर 2019

बप्पा इस बार जब तुम आना


 प्यारे बप्पा,
आख़िर आ ही गया 
समय का चक्र 
घूम कर उस पर्व पर 
जब तुम आते हो,
घर-घर में करते हो
निवास। 

वास करते हो  .. 

या व्रत रखते हो 
दस दिन का ?
भक्त का 
मंगल करने को ?

जो भी हो  .. 

तुम आते हो। 
हर घर पावन कर जाते हो। 
अशुभ को शुभ कर जाते हो। 
जब तक तुम हो। 
विघ्न हर ले जाते हो,
जब जाते हो। 

जब तक तुम हो। 

विग्रह में उपस्थित हो। 
वरद हस्त रखते हो,
हमारे शीश पर.. 
हमारे चिंतन पर 
अंकुश रखते हो। 
फिर क्या होता है ?  

क्या होता है ?

तुम्हारी विग्रह के 
विसर्जन पश्चात् ?

कहाँ चले जाते हो 

विसर्जन के बाद ?
क्या सचमुच हमें छोड़ कर 
विदा हो जाते हो ?
या प्रतिमा के 
विसर्जन के बाद, 
बस जाते हो 
उनके अंतर्मन में तत्पश्चात, 
जिनके चित्त में होता है वास 
मंगल कामना का, 
सद्भावना का ?

सच में क्या तुम 

बस जाते हो 
अस्त्र,शस्त्र,उपकरण,
और हमारी चेष्टा में,
चेतना में, 
मंगल बन कर ?

यदि ऐसा है तो 

किसान के हल में,
लोहार के हथौड़े में,
कुम्हार के चाक में,
चित्रकार की तुलिका में,
शिल्पकार की छेनी में,
अध्यापक के आचरण में 
हो सदा तुम्हारा वास। 

और एक बात। 

सबसे बड़ी बात। 
महर्षि वेद व्यास की रचना 
महाभारत का लेखन 
आपने ही किया था ना ?
क्योंकि प्रत्येक श्लोक 
आत्मसात कर लिखना था,
इसीलिए शब्दों के प्रवाह, 
नियति के आरोह अवरोह,
हर प्रसंग की विवेचना में 
जन जन का मंगल निहित था। 

तो बप्पा क्यों ना इस बार 

विग्रह विसर्जन उपरान्त 
मुझे दो ऐसा ही वरदान ?

महाभारत सामान नियति का,

हर प्रसंग तुम चुनना जीवन का। 
पर जब समय हो भावार्थ करने का, 
तब तुम मेरी कलम पकड़ कर 
लिखना सिखा देना बप्पा। 
सिखा देना लोकहित में
भावानुवाद करना। 

सुन्दर लिखना। 

उससे भी सुन्दर जीवन जीना। 

शनिवार, 31 अगस्त 2019

टिकुली की माला


पीला गेंदा, नारंगी गेंदा, मोगरा, रजनीगंधा, हरसिंगार, बेला, जूही और ये गुलाब !
टिकुली फूली नहीं समा रही थी ! सात साल की इस नन्ही परी  के हाथों में फूलों से भरी टोकरी नहीं, फूलों की घाटी ही सिमट आई थी !

वसंत पंचमी की मीठी बयार ने टिकुली को सुबह-सुबह टपली मार के जगा दिया था.सरस्वती पूजा के दिन फूलों की अल्पना बनाने और माला पिरोने का काम टिकुली को बहुत भाता था. अल्पना पूरी हो गई थी. अब माला पिरोने की बारी थी. बड़े मनोयोग से टिकुली काम में जुट गई. 

उधर टिकुली सुई-धागा लाने गई, टोकरी में एक-दूसरे से सट  कर बैठी फूल सखियाँ हंसी-ठिठोली करने लगीं आपस में.

बेला ने इतरा कर कहा, "मोती जैसा रूप मेरा ! है कोई मेरे जैसा ?"

रजनीगंधा ने नन्ही जूही का हाथ थामा और मंद-मंद मुस्काते हुए अपना पक्ष रखा, "अच्छा !"
"देखो जी ! रात की रानी और जूही को शायद तुमने नहीं देखा !
अजी ! बावरा कर देता है हमारी भीनी-भीनी खुशबू का झोंका ! "

चंपा-चमेली दोनों बहन सी ..दोनों ने अपनी आँखें तरेरी !
"अपनी ही अपनी कहोगी री ?
  हम भी तो किसी से कम नहीं !"

इतने में गेंदे ने अपनी कही !
"अब बस भी करो जी ! 
बहुत हुई तुम्हारी जुगलबंदी ! अब मेरी सुनो जी !
मेरी तो हर मंगल काज, हर पर्व पर होती है उपस्थिति ! अब कहो जी !"

"एक बात मैंने हमेशा देखी है। क्या तुमने भी गौर किया है ?"

सारी की सारी  चहक पड़ीं, "क्या ?"

"तुम सब बहुत सुंदर और सुगन्धित पुष्प हो. तुम्हारी तो बात ही निराली है !
पर कभी इस गुलाब पर भी नज़र डाली है ?"  .... ...... ..... ...... 

"गुलाब कहलाता तो फूलों का राजा है।  पर वो राजा, जिसके सर पर कांटों का ताज है।"  

सारे फूल मौन हो कर सोच में पड़ गए.... बात तो सही है। 
गुलाब के दामन में कांटे ही कांटे हैं। 

मोगरा भी भावुक हो पास ढुलक आया और हाथ जोड़ कर गुलाब से बोला, "वास्तव में तुम्हारी बलिहारी है ! कांटों में ही कटती सारी ज़िन्दगी तुम्हारी है। राजा की पदवी तुम्हें इसीलिए मिली है।"

सभी फूलों ने हामी भरी और शीश नवाया। यह सब सुन कर गुलाब लजाया और मुस्कुराया। बोला,"सब की अपनी नियति है। किसी को कोमल पत्तियां मिली हैं। किसी को कांटों का कवच मिला है। जितना अपनाओ जीवन उतना सरल है। हर बात के पीछे कोई कारण है। कांटे चुभते अवश्य है।  पर फिर भी मेरा रक्षा कवच हैं। जैसा समझो जीवन वैसा लगता है। यही मन और जीवन की सुन्दरता है। "

सारे फूलों ने सुगन्धित समर्थन जताया। जो कांटों में भी खुश हो कर जीता है, उसे ही गुलाब के रूप और सुगंध का वरदान मिलता है। 

सारे फूल टुकुर-टुकुर आकाश को देख रहे थे। और तभी खिलखिलाते हुए टिकुली सुई धागा लेकर माला पिरोने आ गई। 

टोकरी में झाँका तो ठिठक गई। अपलक देखती ही रह गई। फूल तो और अधिक खिल गए थे ! 
कितनी सुन्दर माला बनेगी ! माँ सरस्वती पर और भी खिलेगी !

माला में पिरोये वासंती फूल और बीच में गुलाब। टिकुली को क्या पता, इस बीच क्या हुआ था !
पर देवी सरस्वती ने सब कुछ देखा था। सारे फूल और अधिक  रूपवान हो गए थे, क्योंकि उनके मन संवेदना से जुड़ गए थे।  और टिकुली का मन था, माला का धागा। फूलों को पिरोने वाला। 

इस संसार में सबसे सुन्दर वह है , जो हर परिस्थिति में, दूसरों में भी सुन्दरता देखता है और उसे मन में पिरो लेता है। 



बुधवार, 31 जुलाई 2019

नमक का दारोगा


नमक का दारोगा  ?
अजी ऐसे किरदार, 
जो अपने ईमान पर 
चट्टान की तरह 
अडिग रहते हैं,
वो असल ज़िंदगी में 
कहाँ होते हैं ?

इतना कह कर हम 

छुटकारा पा लेते हैं। 

असल ज़िन्दगी में भी 

नमक के दारोगा होते ,
अगर हम दूसरों से नहीं 
ख़ुद से उम्मीद रखते। 

यदि हम सचमुच चाहते,  
तो दूसरों में नहीं ढूंढते  ..  
अपने भीतर ही खोजते  
नमक का दारोगा। 

अगर हमें अच्छे लगते हैं 
ईमानदार किताबों में, 
तो हम असल जिंदगी का 
उन्हें हिस्सा क्यों नहीं बनाते ? 
क्यों नहीं बन कर दिखाते वैसा 
जैसा था नमक का दारोगा।