प्यारे बप्पा,
आख़िर आ ही गया
समय का चक्र
घूम कर उस पर्व पर
जब तुम आते हो,
घर-घर में करते हो
निवास।
वास करते हो ..
या व्रत रखते हो
दस दिन का ?
भक्त का
मंगल करने को ?
जो भी हो ..
तुम आते हो।
हर घर पावन कर जाते हो।
अशुभ को शुभ कर जाते हो।
जब तक तुम हो।
विघ्न हर ले जाते हो,
जब जाते हो।
जब तक तुम हो।
विग्रह में उपस्थित हो।
वरद हस्त रखते हो,
हमारे शीश पर..
हमारे चिंतन पर
अंकुश रखते हो।
फिर क्या होता है ?
क्या होता है ?
तुम्हारी विग्रह के
विसर्जन पश्चात् ?
कहाँ चले जाते हो
विसर्जन के बाद ?
क्या सचमुच हमें छोड़ कर
विदा हो जाते हो ?
या प्रतिमा के
विसर्जन के बाद,
बस जाते हो
उनके अंतर्मन में तत्पश्चात,
जिनके चित्त में होता है वास
मंगल कामना का,
सद्भावना का ?
सच में क्या तुम
बस जाते हो
अस्त्र,शस्त्र,उपकरण,
और हमारी चेष्टा में,
चेतना में,
मंगल बन कर ?
यदि ऐसा है तो
किसान के हल में,
लोहार के हथौड़े में,
कुम्हार के चाक में,
चित्रकार की तुलिका में,
शिल्पकार की छेनी में,
अध्यापक के आचरण में
हो सदा तुम्हारा वास।
और एक बात।
सबसे बड़ी बात।
महर्षि वेद व्यास की रचना
महाभारत का लेखन
आपने ही किया था ना ?
क्योंकि प्रत्येक श्लोक
आत्मसात कर लिखना था,
इसीलिए शब्दों के प्रवाह,
नियति के आरोह अवरोह,
हर प्रसंग की विवेचना में
जन जन का मंगल निहित था।
तो बप्पा क्यों ना इस बार
विग्रह विसर्जन उपरान्त
मुझे दो ऐसा ही वरदान ?
महाभारत सामान नियति का,
हर प्रसंग तुम चुनना जीवन का।
पर जब समय हो भावार्थ करने का,
तब तुम मेरी कलम पकड़ कर
लिखना सिखा देना बप्पा।
सिखा देना लोकहित में
भावानुवाद करना।
सुन्दर लिखना।
उससे भी सुन्दर जीवन जीना।