मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

दायित्व




अपने अपने आले में, 
दीपक बन के 
जलते रहें ।

इतना भी बहुत है, 
अंधकार में 
उजाला लाने के लिए । 


शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

कही कविता


बचपन से ही कविता को    
संकट के कठिन समय में 
संजीवनी बूटी बनते देखा। 
सुख के चंचल चपल दिनों में 
अहाते में चौकड़ी भरते देखा। 
घर भर के कोने - कोने में 
कविता को रचते - बसते देखा । 

माँ को सदा गृहस्थी के 
उलटे - सीधे फंदों में 
रहीम के दोहे बुनते देखा। 
दाल-भात, खीर और फुल्के 
रसखान के रस में पगते देखा। 

दादा को हर दिन सुबह-सबेरे
चौपाइयों से आचमन करते देखा। 
सूरदास की पदावली में 
ठाकुर दर्शन होते देखा। 

आँखों की नमी को नज़्म होते देखा। 
डूबती नब्ज़ थामने को ग़ज़ल होते देखा। 

कविता से बाँटी मन की पीड़ा। 
जो भी सीखा,कविता से ही सीखा। 

जीवन में लोग आए - गए ,
घटनाक्रम चलते रहे। 
पर कविता ने कभी भी 
साथ नहीं छोड़ा। 

कविता को घर आँगन की 
पावन तुलसी बनते देखा। 
देखा बनते 
सीता मैया की लक्ष्मण रेखा। 
और अर्जुन के लिए 
कृष्ण की गीता। 
कविता से ही सीखा 
जीने का सलीका। 

जब जब ठोकर लगी 
कविता ने ही संभाला। 
कविता जैसा ना पाया 
मनमीत कोई दूजा। 

माँ की गोद से जब उतरे 
कविता की ऊँगली पकड़ के ही 
हमने चलना सीखा। 

कविता से पाई जीवन ने गरिमा। 
कविता से पाई ह्रदय ने ऊष्मा। 

कविता की दृष्टि से ही 
समस्त सृष्टि को देखा। 
कविता में जी को पिरो कर ही 
कविता को जी कर देखा। 


शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

कविता जब सूझी





कविता जब सूझी, 
झट लिख दी । 

बौद्धिक श्रृंगार किया नहीं ।
शब्दों को संजोया नहीं । 
बेवजह मंथन किया नहीं ।
चाँद - सितारे जड़े नहीं ।   

नाप - तोल के देखा नहीं,
लाग - लपेट में पड़े नहीं । 
बस जैसी मन में उपजी, 
वैसी ही अर्पित कर दी। 

भावना सच्ची थी। 
बस इतनी गुणवत्ता थी। 
वर्ना बात ही तो थी ,
कहनी थी कह दी।