मंगलवार, 12 मई 2015

आकस्मिक


ये बात उस परिचित की है
जो कल तक बेगाना था
और आज ज़बरदस्ती
दोस्त बन बैठा है ।
अचानक उस दिन उसने पुकारा
खूबसूरत कह के पुकारा
तो अचरज हुआ
कुछ कहते नहीं बना ।
फिर सोचा चलो
हाज़िरजवाबी का लेकर सहारा
मारा जाये नहले पे दहला
मैंने भी उसे नौजवान सजीला कह दिया ।
अब क्या था
बातों का पिटारा खुल गया ।
जैसे उसने दामन ही पकड़ लिया ।
उसने अपने बारे में बताया
वो भी बताया
जो लोग अक्सर कह पाते हैं
अपने करीबी दोस्त से ।
अब तक समझ नहीं आया
ऐसा उसने क्यों किया ?
एक टूटा हुआ रिश्ता
अंदरूनी ज़ख्म होता है
जो आदमी या तो वैद्य
या अपने अज़ीज़ को दिखाता है ।
मुझे तो न दुःख की दवा पता
न आज से पहले था कोई रिश्ता ।
फिर उसने अपना सवाल पूछा
जैसे उसे पहले से था पता
कि मन के किसी कोने में
जवाब है छुपा ।
ये मनाता हुआ
कि कोई पूछ ले सवाल
टटोले दिल का हाल  ।
वरना क्या ज़रूरी था ?
सवाल का जवाब देना ?
बल्कि तुमने ही किया था
शुक्रिया
पूछने का और सुनने का ।
खुद ही अपना चैन गवां दिया !
माना उसने कंकड़ फेंका
शांत जल को उथल पुथल कर दिया ।
पर तुमसे किसने कहा था
उसी जल में देखो अपना मुखड़ा ?
हर बात जानना चाहता है
हर ज़ख्म कुरेदना चाहता है
दुःख बाँटना चाहता है
कस कर गले लगाना चाहता है
और सब कुछ अभी
अभी कि अभी
जानना चाहता है ।
मेरा ये आकस्मिक दोस्त
आखिर क्या चाहता है ?

रविवार, 10 मई 2015

अभिनंदन

पस्त 
ध्वस्त 
क्लांत 
परास्त 
बस के इंतज़ार में 
सड़क के किनारे 
पेड़ के नीचे 
खड़ी थी, 
सोचती हुई ।  
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं । 
किसी को परवाह नहीं । 
जीने की कोई चाह नहीं ।  
रास्ता तक पार करने की 
हिम्मत नहीं । 
पैरों में जान नहीं ।  
कैसे जीवन की 
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।

आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।  
और नब्ज़ डूब सी रही थी । 
फिर अनायास ही देखा  . . 
बहुत सारे 
सोनमोहर के फूल पीले 
मुझ पर ऊपर से झरे, 
दुपट्टे में अटक गए, 
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के 
बिखर गये ।

अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का 
अभिनंदन किया । 

और बहुत कुछ कह दिया ।

     
    

शनिवार, 9 मई 2015

हम दोस्त हैं


जाने कब से,
हम मिले नहीं ।
एक - दूसरे के बारे में,
हम कुछ जानते नहीं ।
फिर भी,
हम दोस्त हैं ।

आप भी हमारे हालात पहचानिये, 
हमारी मसरूफ़ियत को जानिये, 
देखिये, इस बात को समझिये  . . 
हम दोस्तों की सारी ख़बर रखते हैं ।

फ़ेसबुक की टाइमलाइन पर 
                    नज़र रखते हैं !
आप ख़ुद देख लीजिये !
दोस्तों की हर पोस्ट को 
              लाइक करते हैं !
हर फोटो को शेयर करते हैं,
ट्विटर पर फ़ॉलो  करते हैं !
इंस्टाग्राम पर दीदार करते हैं  . . 

पर अब, ये सब फ़िज़ूल की बातें हैं,
जो आप कहते हैं  . . 
क्या हम अपने दोस्त की 
लिखावट पहचानते हैं ?
क्या हम अपने दोस्त की 
दुखती रग चीन्हते हैं ?
इन सवालों का जवाब  . . 
                 "नहीं" है ।
इन जज़्बाती बातों के लिए वक़्त 
                            नहीं है ।
फिर भी,
हम दोस्त हैं ।

दोस्तों की लम्बी 
फ़ेहरिस्त है ।
आप चाहें तो हम 
गिनवा सकते हैं ।
मजाल है जो कभी 
उनकी बर्थडे पर 
मैसेज ना किया हो !
एनिवर्सरी पर 
विश न किया हो !
हाँ इतना तो वक़्त नहीं,
जो घर आना - जाना हो ।
कभी साथ में सैर पर निकला जाये ।
जब बिना पूछे ही 
मन की बातें 
ज़बान पर आ जायें ।
या कभी यूँ ही बरामदे में 
चुपचाप बैठा जाये,
समय की चहलकदमी को 
कौतुक से देखा जाये ।
कभी झकझोर के 
अपने अज़ीज़ को 
पूछा जाये,
यार बता !
आख़िर बात क्या है ?

हाँ ठीक है ।
वो बात ही कुछ और होती 
अगर कभी कभी 
हम गले मिलते ।
हाथ मिलाते 
तो जान पाते  . . 
दोस्त की हथेली 
ठंडी क्यों है,
पकड़ ढ़ीली क्यों है  . . 
या तसल्ली होती -
गर्मजोशी से हाथ मिला के 
दिल के बंद पोर खुल जाते !

पर ऐसा है नहीं ।
अंदरुनी दूरियाँ 
अब कोई 
नापता नहीं  . . 

ऐसा है नहीं  . . 

फिर भी,
हम दोस्त हैं ।