पस्त
ध्वस्त
क्लांत
परास्त
बस के इंतज़ार में
सड़क के किनारे
पेड़ के नीचे
खड़ी थी,
सोचती हुई ।
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं ।
किसी को परवाह नहीं ।
जीने की कोई चाह नहीं ।
रास्ता तक पार करने की
हिम्मत नहीं ।
पैरों में जान नहीं ।
कैसे जीवन की
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।
आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।
और नब्ज़ डूब सी रही थी ।
फिर अनायास ही देखा . .
बहुत सारे
सोनमोहर के फूल पीले
मुझ पर ऊपर से झरे,
दुपट्टे में अटक गए,
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के
बिखर गये ।
अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का
अभिनंदन किया ।
और बहुत कुछ कह दिया ।
ध्वस्त
क्लांत
परास्त
बस के इंतज़ार में
सड़क के किनारे
पेड़ के नीचे
खड़ी थी,
सोचती हुई ।
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं ।
किसी को परवाह नहीं ।
जीने की कोई चाह नहीं ।
रास्ता तक पार करने की
हिम्मत नहीं ।
पैरों में जान नहीं ।
कैसे जीवन की
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।
आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।
और नब्ज़ डूब सी रही थी ।
फिर अनायास ही देखा . .
बहुत सारे
सोनमोहर के फूल पीले
मुझ पर ऊपर से झरे,
दुपट्टे में अटक गए,
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के
बिखर गये ।
अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का
अभिनंदन किया ।
और बहुत कुछ कह दिया ।
क्या रोना धोना मचा रखा है। यह तीसरी कविता पढ़ रहा हूँ। यहाँ भी आधी में तो दुख ही बाँचा हुआ है। बाक़ी आधी पर क्यों दया आ गई। ऐसा करना था न - कि फूल गिरे, तो ऊपर देखा, तो पता चला, किसी बच्चे ने, मारा था अद्धा, वह आ कर, सर पर गिरा, और हम चारों ख़ाने चित। क्या हो गया है बेटा। क्यों ऐसी कविता कर रही है। कविता कवि के हृदय का आईना ही होती है। और तेरे हृदय का हाल देख कर अब लिखें क्या भला।
जवाब देंहटाएंकविता की तरह देखेंगे तो कहेंगे वाह वाह, क्या कविता है। क्या सुंदर वर्णन है जीवन की करुणा का – जीने की चाह नहीं, पैरों में जान नहीं, और आँखों में नमी थी, और जान जा रही थी, और फूल झड़ गये। अन्त भला तो सब भला। कविता अच्छी हो गई। हो गई होगी। मगर मुझे तो शुरू से ही भली भली चाहिये, भोली भाली सी।