शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

लिखने से पहले




जब-जब कलम लिख नहीं पाती ,
ख़ुद से बात नहीं हो पाती ।

मन पर एक बोझ-सा बना रहता है ,
मन घुटता रहता है ;
जैसे आकाश में चारों तरफ़ 
घुमड़ रहे हों बादल . 
वर्षा की प्रतीक्षा 
जैसे करती है धरा ,
चुप्पी साधे ,
मन भी बाट तकता है 
अनुभूतियों के आगमन की ,
भावनाओं की अभिव्यक्ति की .    
आह ! डबडबाते हैं बादल 
पर वर्षा नहीं होती ,
तरसती रहती है धरती . 

धैर्य की चरम सीमा 
छूकर जब मन है पिघलता ,
होती है वर्षा . 
झूम-झूम कर स्वागत करती है 
समस्त वसुधा,
शब्द-शब्द का . . 
छम-छम नाचती है 
बूंदों की श्रृंखला .

मिट्टी में दबा बीज जाग उठता है . 
कवि हृदय में कविता का अंकुर फूटता है .  



गुरुवार, 16 जनवरी 2014

स्वामी विवेकानंद


स्वामीजी, 
आपका चिर-परिचित चित्र, 
हमारे मन - मस्तिष्क पर 
बरसों से अंकित है . 
अंकित है आपकी छवि 
नोटबुक के मुखपृष्ठ पर,
दीवार पर लगे पोस्टर पर,
सिक्के पर,
डाक टिकट पर . 
हमारी दिनचर्या का 
अभिन्न अंग हैं आप . 
आप . . आप के विचार . 
पर क्या सचमुच ?

इतना बहुत है क्या ?
आपके विचार 
डायरी में नोट कर लेना ?
और दराज में सहेज कर रख लेना ?
दराज को खोलना, 
डायरी में लिखे विचारों को 
धूप - हवा देना 
भी ज़रूरी नहीं है क्या ?

विचारों को मथना . .  
आत्मचिंतन करना . . 
कर्म करना . . 
आपने यही मन्त्र दिया था ना ?

आपके विचारों के प्रकाश में 
अपना धर्म बाँचना 
और कर्म की कलम से 
श्रम की परिभाषा लिखना, 
आपकी शिक्षा को गुनना 
मुझसे हो सके, 
आशीर्वाद दीजिये ऐसा.  

आपको अर्पित कर सकूं गुरु दक्षिणा 
आत्मबल दीजियेगा इतना . 
  

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

सपना



तुम मेरा सपना हो ।

तुम मेरा सपना हो ।
कोई भूली हुई ख्वाहिश नहीं,
सूखे फूलों का गुलदस्ता नहीं,
टूटी हुई स्ट्रीट लाइट नहीं,
दीवार पर टँगी तस्वीर नहीं,
जो देख-समझ कर भी 
अनदेखा कर दिया जाये ।       

तुम मेरा सपना हो ।
जागती आँखों का सपना हो ।
जो ठोस धरातल पर खड़ा है ।
जो उम्मीद के धागों से सिला है ।

तुम मेरा सपना हो ।
तुम वो खुली हवादार खिड़की हो, 
जिसके रास्ते 
धूप सीना ताने,
मेरे घर में आती है ।  
अपने बस्ते में 
अनगिनत सम्भावनाएं लाती है ।

तुम मेरा सपना हो ।
तुम वो सादा कागज़ हो 
जिस पर मैंने 
शब्दों के रंग भरे हैं,
मात्राओं से ख़याल बुने हैं ।
इस कागज़ को पढ़ो 
तो समझोगे, 
कैसे स्वप्न गढ़े जाते हैं ।

तुम मेरा सपना हो ।
तुम वो सीधी - सरल धुन हो 
जिस पर हर साज़ इठलाता है ।
जिसे हर मस्त - मौला गुनगुनाता है,
जिसकी लय से बंध कर 
मेरा सपना सुरीला हो जाता है ।

तुम मेरा सपना हो। 
तुम मेरी प्रार्थना हो। 
तुम्हें सच होते देखना, 
मेरा सपना है ।
ये सपना मेरा अपना है ।

तुम इसका मान रखना ।

      
     
      

बुधवार, 1 जनवरी 2014

दो अभय




माथे पर बिंदी नहीं,
कलाइयों में चूड़ियाँ नहीं,
कानों में बुँदे नहीं,
नाक में लौंग नहीं,
सूती बंगाली साड़ी नहीं,

अस्पताल के कपड़े ।
ड्रिप को देखते - देखते 
बूँद - बूँद 
सरकता समय  . . 
नहीं, नहीं, 
मुझे बर्दाश्त नहीं !
माँ का ये बेरंग फीका चेहरा,
चेहरे पर दर्द की लकीरें  . . 
आय वी से छिदे 
हाथ दुबले - पतले  . . 

परमपिता,
अब कुछ करो ऐसा,
मिट जाये चिंता की रेखा ।
जीवन की गरिमा 
बनी रहे ।
लौट आयें ज़िंदगी में 
ज़िंदादिली के रंग  . . 

इस निस्सार शून्य से 
अब तो दो अभय !


               

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

क्या हुआ ?




क्या हुआ ?

उसने पूछा ।

जाने क्या देखा  . . 
मेरा उदास चेहरा ?
या देखी परेशानी
मेरी पेशानी पर ?
या पढ़ ली बेचैनी 
बातों में मेरी ?  

मेरे लिए बड़ी बात है ये 
कि उसने पूछा तो सही ।
आप दिनों - दिन घुटते रहते हैं,
मन ही मन छटपटाते रहते हैं,
और किसी का ध्यान तक जाता नहीं ।

और फिर अचानक एक दिन 
कोई पूछ बैठता है -
क्या हुआ ?

जैसे चोट पर कोई रख दे, 
रुई का फाहा ।
जैसे दिल पर से उतर जाये, 
बोझ मनों का ।

केवल दो शब्द  . . 
क्या हुआ ?

और हम किसी बेहद अपने से भी
पूछना भूल जाते हैं,
या सोच ही नहीं पाते हैं,
कितना ज़रूरी है ये पूछना भी ।

कहने को छोटी - सी बात है,
पर किसी के लिए बहुत बड़ी राहत है ।

पूछ कर देखो तो सही ।
कभी न कभी तुम्हें भी,
ज़रुरत तो पड़ेगी ही ।

दौड़ते - भागते जीना,
कुछ देर रोक कर,
ज़रूरी है ठहर कर पूछना  . . 

क्या हुआ ?


                  

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

धन्यवाद सचिन




समूची आबोहवा 
धुली - धुली सी,
बात चल रही है 
सचिन की ।

सचिन का संन्यास लेना,
हज़ारों दिलों का टूटना ।
करोड़ों दिलों पर हुक़ूमत करना,
मुस्कुराती आँखों का नम होना ।

जब सचिन ने शुरू किया 
धन्यवाद कहना,
मंत्रमुग्ध सुन रहा था 
स्टेडियम का कोना - कोना ।

तुम्हारे चेहरे पर वही सादगी, 
वही सरल मुस्कान ।          
तुम्हारे शब्दों में भी वही, 
ऊँचे नभ की उड़ान ।
शायद ही बचा कोई ऐसा कीर्तिमान,
जिस पर ना लिखा हो तुम्हारा नाम ।

बहुत कम दिन ऐसे होते हैं,
जब आशाओं के ताल भरे होते हैं ।
सारी बुरी ख़बरों पर 
शुभ संवाद हावी होते हैं ।
ऐसे ही थे ये दो - तीन दिन,
जब हर तरफ हो रही थी सिर्फ़ 
खेल, शुद्ध खेल की बात ।
तुम्हारे 
चौबीस साल के 
बेदाग़ सफ़र की बात ।

जैसे साफ़, सफ़ेद कागज़ पर उतारे,  
मोती जैसे जज़्बात ।
जैसे तारों के शामियाने के नीचे, 
चैन की साँस लेती रात ।
कुछ ऐसा सुक़ून था 
फ़िज़ा में,
इधर कुछ दिन 
तुम्हारे बहाने  . . 

धन्यवाद सचिन ।