शनिवार, 13 जुलाई 2013

जनाब ! कविता पक रही है !




जग आँगन में अँगीठी ..
विचारों की ..  
सुलग रही है ।
भावनाओं की आँच पर,
मन की पतीली में 
कविता खदक रही है ।

मनभावन महक आ रही है ।
बेसब्री सता रही है ।

आओ, झट से 
पंगत में बैठें, 
और प्रतीक्षा करें 
रचना 
परोसे जाने की ।      




शनिवार, 6 जुलाई 2013

छाप



नहीं पता ..
कैसी है ये दशा ।
पढ़ा हुआ 
कुछ भी 
याद नहीं रहता .

             एक सुन्न सन्नाटा 
             स्मृति पर छाया हुआ,
             जैसे गाढ़ा कोहरा
             धुंध का दुशाला दोहरा, 
             जब भी पीछे मुड़ कर देखा।

पढ़ा हुआ क्या 
कुछ भी 
याद नहीं रहता ?
पढ़ कर जो कुछ पाया 
क्या सब खो दिया ?

             अँधेरी कोठरी में जला कर दिया
             जैसे कोई चीज़ खोजना .. 
             ऐसे ही अपने प्रश्न का 
             मैंने स्वयं उत्तर दिया ।  

नहीं हो पाती 
पढ़े हुए की व्याख्या,  
पर रह जाता है 
एक अहसास चुप-चुप सा ।
कहा नहीं जा सकता, 
पर अनदेखा भी 
किया नहीं जा सकता ।
एक अव्यक्त अनुभूति होती है ।
कोई बात रह जाती है ।
जैसे हवा में खुशबू घुल जाती है ।
जैसे गीली मिट्टी पर छाप रह जाती है ।

             फूल मुरझा जाते हैं ।
             पर सुगंध मन में बस जाती है ।
             वर्षा का जल बह जाता है ।
             पर मिट्टी नमी सोख लेती है ।

समय की लठिया टेकता 
पतझड़ जब आता है, 
सारे पत्ते झड़ जाते हैं । 
और अगर तूफ़ान आ गया .. 
सब कुछ तहस-नहस कर जाता है ।

इतना सब ध्वस्त 
होने के बाद भी, 
मिट्टी में कहीं 
बीज दबा रह जाता है ।
भाव के इस बीज से ही 
कल अंकुर फूटेगा । 
विचारों का पौधा 
पल्लवित होगा । 
और संवेदनशीलता का 
हरा-भरा वृक्ष लहलहायेगा 
अंतःकरण की 
उर्वर भूमि पर ।                       
                      
            



रविवार, 30 जून 2013

कविता की व्यथा




कविता की व्यथा ,
चुभती, कचोटती कथा .
कांच का टुकड़ा ,
कलेजे में उतरा .

जो कहना मना था ,
वही कह बैठा .
आंसुओं का सिलसिला ,
भीतर तक पैठा .

कितना कुछ कहना था ,
जब कहने बैठा ..
शब्दों की विवेचना 
में उलझ बैठा .
उधेड़बुन से छूटा 
तो भावनाओं में डूबा .

डूबा तो जाना ,
कविता की व्यथा ,
होती है क्या .

व्यथा में पिरोया 
मोती कविता का ,
कविता की मार्मिक कथा .