रविवार, 19 मई 2013

शबरी के बेर




कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !

सब अपनी झोली भरते हैं !
रुपये को ही सब भजते हैं !
मतलब के सारे कायदे हैं !
मुखौटों के बड़े फ़ायदे हैं !
अब सज्जन पुरुष सुनो भैया !
बस कथालोक में मिलते हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


यहाँ सीधे - सादे लुटते हैं !
और चलते पुर्जे चलते हैं !
यहाँ आम आदमी पिसता है !
और नेता ठाठ से जीता है !
अब सेवा, सत्याग्रह भैया !
सब चुनावी नुस्खे हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


बच्चों का दूध मिलावटी है !
खुशहाली भी सजावटी है !
यारों का जतन दिखावटी है !
नाहक ही लागलपेटी है !
जो ईमान पे जीते हों भैया !
वो यदा-कदा ही मिलते हैं !


कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !





शुक्रवार, 17 मई 2013

टीन के गमले



लोकल ट्रेन की 

पटरियों के किनारे 
नाले पर बसी बस्ती ..
बस्ती के घर 
बेपर्दा हैं .
झोंपड़पट्टी के घर 
दड़बे जैसे ,
निहायत ही ज़रूरती 
सामान से भरे .
फ़र्श साफ़-सुथरे ,
आले में 
बर्तन चमकते हुए ,
और टीन के डब्बों में 
पौधे खिले हुए ..
अपनी अस्मिता का 
दावा ठोकते हुए ..
एक चुनौती हैं -
मुफ़लिसी से पैदा हुई 
मायूसी के लिए .
सबूत हैं -  
जीवन की उर्वरता का .
प्रमाण हैं -
इस बात का कि  
जीने और खिलने की निष्ठा 
शुद्ध आबोहवा की भी 
मोहताज नहीं .
जड़ पकड़ने भर को 
बस मुट्ठी भर मिट्टी चाहिए .
टीन के डिब्बों में 
रत्न से जड़े हैं ,
छोटे - छोटे ये पौधे 
जिद्दी बड़े हैं .
डट कर 
जी रहे हैं . 


रविवार, 12 मई 2013

कह डालो




बेबस दिल का गुबार निकालो ,
झट से इक कविता लिख डालो .
और किसी से कहो न कहो ,
कविता में सब कुछ कह डालो .

शब्दों को अपना मित्र बना लो .
भावों को सारथी बना लो .
मन के द्वन्द सकल मथ डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

बासी बातों को धूप दिखा दो .
आस की चुनरी रंगवा लो .
स्मृतियों की गठरी खोल डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

झाड - पोंछ कर साफ़ करा लो .
मन में पूजा का दीप जला लो .
जो लिखा वही नैवेद्य चढ़ा दो .
कविता में सब कुछ कह डालो .