रविवार, 30 सितंबर 2012

उस दिन के क्या कहने


सुबह - सुबह 
कोई कविता मिल जाये,
भली-सी,
खिली-खिली सी,
तो उस दिन के 
क्या कहने !

ठंडी बयार सी,
बारिश की फुहार सी,
भाभी की मनुहार सी,
मुन्ने की हंसी सी,
बेला सी, चमेली सी,
मालती की बेल सी,
हरी-भरी तुलसी सी,
मुंडेर पर ठिठकी धूप सी,
सुलगती अंगीठी सी,
डफली की थाप सी,
बांसुरी की तान सी,
सुबह के राग सी 
कोई कविता मिल जाये,
तो उस दिन के 
क्या कहने !

दिन करवट ले 
उठ बैठे,
कविता की बात 
गहरे तक पैठे  ..
सुस्ती के कान उमेंठे, 
छपाक से पानी में कूदे,
लट्टू की तरह फिरकी ले झूमे,
छज्जे से छनती धूप को बटोरे,
बुरे वक़्त को आड़े हाथों ले,
पहरों के बिखरे तिनके समेटे,
हर घड़ी को मोतियों में तोले,
चुन-चुन कर उमंगें साथ ले ले,
और चल दे,
कविता की ओट में 
जीने के लिए .

सवेरे-सवेरे 
कोई कविता मिल जाये,
तो उस दिन के 
क्या कहने ! 


मंगलवार, 4 सितंबर 2012

कड़े दिनों के दिवास्वप्न



कड़े दिन .. 
कट जाते हैं 
दिवास्वप्न के सहारे।
ये जो दिवास्वप्न हैं,
अभिलाषाओं और आशाओं का 
गणित हैं।

और ये मन क्या 
किसी मुनीमजी से कम है ?
हिसाब बैठता है 
संभावनाओं का।
सुख जोड़ता है।
दुःख घटाता है।
इच्छाओं का गुना-भाग कर 
भावनाओं का सामंजस्य बिठाता है।

ये जो दिवास्वप्न हैं ,
जीवन से लगी आस का 
चलचित्र हैं।
छोटी-बड़ी उम्मीदों का 
यायावरी क्रम हैं।

ये जो दिवास्वप्न हैं ,
ऊन के फंदे हैं 
जो माँ स्वेटर बुनते बखत 
सलाई पर डालती है।
रेशम के धागे हैं 
जिनसे बिटिया 
ओढ़नी पर 
बूटियाँ काढती है।
कल्पना का रथ हैं 
जिस पर सवार 
मेरे बेटे के भविष्य का 
चिंतन है।

उम्मीद का परचम हैं 
ये दिवास्वप्न।
इनके सहारे 
कट जाते हैं 
कड़े दिन।  



रविवार, 2 सितंबर 2012

छांव



तुमने
तपती धूप से
बचने के लिए
एक सूती दुपट्टा
दिया है.
भगवान करे
तुम्हें
जीवन में
कभी भी
छांव की
कमी ना हो.