शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

चलो आज


आज चलो इस पेड़ के नीचे
बैठें और चैन की बंसी बजायें .

हरी दूब पर.. गुनगुनी धुप में
दूधिया बादल की छतरी लगाये,
खुली हवा को गले लगायें .

खिलते फूल पंख तितली के
सृष्टि ने कितनी लगन से सजाये .
खिलते - खिलते ... मुरझाने से पहले
रंग - सुगंध के त्यौहार मनाये .

फिर कांटे चुभने के भय से
क्यूँ इस क्षण का आनंद गँवायें ?

हरी घास पर नंगे पाँव
आओ चलो दौड़ लगायें .
बच्चों की टोली के संग - संग
रंग बिरंगी पतंग उड़ायें .

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

चौराहा


गली-कूचों
के रास्ते,
ख़ुद--ख़ुद
मुड़ते जाते हैं
पर जब
चौराहा आता है ..
सवाल उठाता है

प्रश्नचिन्ह बन कर
खड़ा हो जाता है,
चौराहे का हर एक रास्ता
बाध्य करता है सोचने को,
चुनौती देता है
हमारे दिशा बोध को

पूछता है हमसे
क्या अब तक नहीं समझे ?
कहाँ ले जाते हैं कौन से रस्ते ?

नहीं ? तो
पता करो
रास्ते तो सभी
पहुंचाते हैं कहीं कहीं,
पर बात
घूम-फिर कर
आती है वहीँ -
चौराहे पर

गोल चक्कर के फव्वारे का
रौशनी से नहाना,
सड़क की बत्तियों का
दिन मुंदते जगमगाना,
साइकिल वाले का घंटी बजाना,
ट्रैफिक का शोर मचाना,
सिग्नल का हरा, पीला और लाल होना,
बूढे आदमी का -
बच्चे का हाथ पकड़ना
और सड़क पार करना ..
समर्थन है
जीवन के प्रवाह का

यहाँ से शुरू होता है
सोचना और करना
अपना रास्ता ख़ुद चुनना,
और उस पर चलते रहना
हर कदम पर कुछ सीखना

हमारा चुनाव ही
हमारी जिजीविषा की परिणति,
हमारा संकल्प ही
गढ़ता है हमारी नियति

चौराहे तक पहुंचना,
तो कुछ देर ठहर कर देखना ....

चौराहे की चहल-पहल में
हर संभावना छुपी है,
चौराहे पर ज़िन्दगी मज़े लेती
खोमचे लगा कर खड़ी है