दफ्तर से लौटते वक़्त
रोज़ाना,
सिग्नल वाले मोड़ पर,
पुल के नीचे,
बस रूकती है
एक दो मिनट ।
अक्सर
मेरी खिड़की से
दिखाई देता है
पुल के नीचे का
एक कोना
जहाँ
एक परिवार बसता है ।
रोज़ दिखाई देता है
वह छोटा - सा परिवार ।
एक कम उम्र की औरत,
उसका छोटा-सा बच्चा,
एक बड़ी उम्र की औरत,
उसकी सास शायद . .
और संभवतः आदमी उसका ।
उनकी गृहस्थी बँधी
कुछ पोटलियों में ।
बस जब रूकती है
डेढ़-दो मिनट . .
खाना बन रहा होता है
अक्सर ।
चार ईंटों पर बना चूल्हा
उस पर एक तवा,
तवे पर सिकती मोटी रोटी
देख कर भूख लग आती है ।
बड़ी औरत हमेशा
एक ही जगह
बैठी नज़र आती है,
हिडिम्बा जैसी,
स्थापित स्तूप की तरह ।
खाना वही बनाती है ।
कभी-कभी लेटी नज़र आती है,
पोटलियों के बीच ।
असल में वही है
परिवार की मुखिया ।
गल्ले पर जैसे सेठ बैठा हो,
वह बैठी-बैठी,
छोटी-छोटी प्लास्टिक की डिब्बियों से
शायद मसाला निकालती है,
छौंक लगाती है ।
बच्चे की दूध की बोतल भी
रखी होती है ।
ज़रुरत की चीज़ें सभी
उन पोटलियों में मौजूद हैं ।
एक दिन अचानक देखा,
चूल्हा पड़ा था ठंडा ।
और सामान भी नहीं था ।
जी धक से रह गया ।
कहाँ गए ? क्या हुआ ?
मन उदास हो गया
उन्हें ढूँढता हुआ ।
अगले दिन फिर देखा . .
वही सरंजाम था ।
परिवार वापस आ गया था !
जान कर चैन आया ।
रोज़ का सिलसिला
फिर शुरू हो गया ।
पुल का कोना फिर बस गया ।
उनका चूल्हा जलता रहे ।
चूल्हे पर कुछ ना कुछ पकता रहे ।
बच्चे की दूध की बोतल भरी रहे ।
बस इसी तरह रोज़ रुका करे ।
उनसे मेरा रिश्ता बना रहे ।
और भगवान करे . .
एक दिन
उनके भी सर पर हो
एक छत ।