बुधवार, 4 अप्रैल 2012

हद करती हैं लङकियां




जाने क्या-क्या सवाल पूछती हैं लङकियां,
चुप रह के भी बेबाक़ बोलती हैं लङकियां.

बङी शिद्दत से मुहब्ब्त करती हैं लङकियां,
बात-बात पर देखो झगङती हैं लङकियां.

नज़ाकत की मारी ये शोख बिजलियां,
हालात को टक्कर देती हैं लङकियां.

बङे ही नाज़ों से पाली ये हमारी बेटियाँ,
कुनबा सारा का सारा संभालती हैं लङकियां.

गलतियां करने का रखती हैं हौसला,
शर्तों पे अपनी जीने लगी हैं लङकियां.

मर्दों से बराबरी की दुहाई नहीं देतीं,
किस्मत से भी बेखौफ़ उलझने लगी हैं लङकियां.

उम्मीद के सहारे नहीं काटती सदियाँ,
फ़ैसले खुद अपने करने लगी हैं लङकियां.

हँसती हैं सिसकती हैं धधकती हैं लङकियां,
कमर कस के हर घङी को जीती हैं लङकियां.

हद करती हैं लङकियां  !



शुक्रवार, 2 मार्च 2012






अब हमको किसी पर भी भरोसा नहीं रहा,
जिस पर किया यकीं वही छल के चल दिया.    

            
छुप-छुप के रहता हूं मैं अब अपने ही घर में,
जिसको पता दिया वही घर लूट ले गया.

अब किससे शिकायत करें और काहे का शिकवा,
कह-सुन के मना लें अब वो रिश्ता नहीं रहा.

मिलते हैं हज़ारों दफ़ा पर उनको क्या पता,
बिन बोले समझ लें वो अपनापन नहीं रहा.




रविवार, 19 फ़रवरी 2012

अलख

 

जब चाँद गगन में खिला,
सूरज था घोङे बेच कर सोया.
दिन भर का थका-हारा,
रात के बिछौने पर पसरा.

चाँदनी चुपके से आई,
धरती को ओढनी ओढाई.
नभ के तारे बटोर लाई,
और धीमे-धीमे लोरी सुनाई.

दिन बीते अमावस आई,
काजल से काली रजनी लाई.
कुछ ना देता था दिखाई,
तब तारों ने इक बात सुझाई.
क्यों ना अपनी टोली में,
दिये भी शामिल कर लें भाई ?
सभी के मन को बात ये भाई,
टिमटिमाते दियों की सभा बुलाई.

दिये आखिर मिट्टी के होते हैं,
सो बङे ही सीधे-सादे होते हैं.
झट से मान गये,
विपदा टाल गये.

दिये आखिर मिट्टी के होते हैं,
सो बङे ही मेहनती होते हैं.
तेल-बाती जुटा लाये,
झटपट झिलमिल जलने लगे.

सूरज ने चँदा ने सुना,
दोनों ने खुश होकर कहा,
समय पर जो काम आया,
वही मीत सबसे भला.

चँदा सूरज तारे दिये,
अब दोस्त कहलायेंगे.
सब साथी मिलजुल के,
जग का अँधेरा मिटायेंगे.

चँदा सूरज और तारे जब थक जायेंगे,
छोटे-छोटे मिट्टी के दिये बीङा उठायेंगे.
जब-जब अमावस आयेगी,
जगत की दृष्टि हर ले जायेगी,
दिये की अडिग लौ
अलख जगायेगी.

जिस दिन हज़ारों दिये जगमगायेंगे,
हम सब मिल कर दीपावली मनायेंगे.