धुकधुकी
चलो हाथ पकड़ो !
दोनों मिल कर,
फिरकी लेते हैं
तेज़ी से !
.. लट्टू की तरह !
.. पृथ्वी की तरह !
देखें ..
चारों तरफ़ घूमती दुनिया
हमसे कितनी तेज़
चक्कर लगाती है !
या फिर यूँ ही इतराती है !
ज़िन्दगी जो रोज़ हमें नचाती है !
हमारे साथ चकराती
कैसी नज़र आती है !
छूट ना जाये !
कस कर पकड़ना हाथ !
हाँ ! ये हुई ना कुछ बात !
एक-दूसरे के भरोसे,
एक-दूजे के साथ,
कुछ करने की
और ही है बात !
पैर धरती पर जमा कर ..
जैसे मथनी चला कर ..
जीवन की धुरी पर थिरक कर,
हर श्वास पर जप कर,
जिजीविषा का गीत ..
चख लें
चिंतन के मंथन का
नवनीत !
धिनक धिनक धिन ..
धिनक धिनक धिन ..
जी में एक धुन
ले रही है फिरकी..
कर रही है ठिठोली ..
कहो तो सुनाऊं !
खुशी भी
जुगनू की रोशनी सी
आँख-मिचोली है .
एक पल दीये सी टिमटिमाती है
और पलक झपकते गुम भी हो जाती है !
यही तो जीवन की अठखेली है !
कभी ना बूझी जाये वो पहेली है !
पर सुनो !
बूझ कर भी क्या होगा ?
जो होना है वही होगा !
हमारे साथ हमारा भवितव्य चलेगा .
बहरहाल इस पल का सच यही है
कि हमारे साथ ज़िंदगी भी
चक्रम हो रही है !
हमारे कलेजे की
धुकधुकी
तेज़ हो रही है !
और कह रही है -
इस पल का हासिल यही है
कि लकीरें
तेरी-मेरी हथेली की
आपस में जुड़ रही हैं,
मैं तेरी
और तू मेरी
सहेली है .
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
रंगरेज़
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
जिस रंग में चाहो ,
रंग दो ,
अपनी बातों को .
रंग फीका ना हो .
चोखा हो ,
चटकीला हो ,
पर पक्का हो !
जब चढ़े तो
मन में तरंग हो !
पग चंग, मृदंग, पतंग हो !
जब रचे तो
मेहंदी, हल्दी ..
रोली, ठिठोली ..
टेसू, गुलमोहर ..
फागुन की फुहार ..
इन्द्रधनुष हो !
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
ऐसे रंग में रंग दो
अपनी बातों को ,
मानो हर सोच
एक छंद हो .
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
जिस रंग में चाहो ,
रंग दो ,
अपनी बातों को .
रंग फीका ना हो .
चोखा हो ,
चटकीला हो ,
पर पक्का हो !
जब चढ़े तो
मन में तरंग हो !
पग चंग, मृदंग, पतंग हो !
जब रचे तो
मेहंदी, हल्दी ..
रोली, ठिठोली ..
टेसू, गुलमोहर ..
फागुन की फुहार ..
इन्द्रधनुष हो !
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
ऐसे रंग में रंग दो
अपनी बातों को ,
मानो हर सोच
एक छंद हो .
सोमवार, 22 फ़रवरी 2010
बशर्ते प्यार ...
क्या कहा ?
बुढ़ापे में प्यार !
क्यों भैय्या ?
प्यार का
उम्र से क्या सरोकार !
कुछ रिश्ते
दिन चढ़ते ,
बनते हैं .
कुछ नाते
दिन ढलते
पार्क की बेंच पर बैठे
सूर्यास्त देखते देखते
जुड़ते हैं .
हाँ ये सच है ,
हर उम्र का
अंदाज़ जुदा होता है ;
पर फ़लसफ़ा वही
रहता है .
यानी
कोई फ़लसफ़ा नहीं
होता है .
तट से बंध कर नहीं,
नदी का पानी
ख़ुद-ब-ख़ुद
रवां होता है .
होता है
पानी वही,
पर कहलाता है कभी
पहाड़ी झरना ..
और इसी पानी का
एक दिन
किनारों ने देखा
चुपचाप बहना .
दोनों को देखना
लगता है भला .
अहम है पानी का साफ़ होना,
फिर क्या नदी .. क्या झरना .
क्यों रहे सूना, मन का कोई कोना .
सहज है हर उम्र में, प्यार होना .
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