एक मिट्टी के दीये की
अडिग अटूट लौ . .
मानो हाथ जोड़े
कर रही हो
वंदना आराध्य की ।
मानो कवि की कल्पना
बन गई हो प्रार्थना ।
मानो एकटक अपलक
झाँक रही हो
प्रियतम के मन में ।
मानो सर उठाये
निर्भय निर्द्वन्द,
अकेली खड़ी हो
सत्य की प्राचीर पर,
दृढ़ निश्चय का बाण ताने,
धनुष उठाए,
सामना करने
भवितव्य के आक्रमण का ।