रविवार, 9 जून 2024

गुलमोहर के बहाने

तपती दोपहर में

खिले गुलमोहर ,

किनारे-किनारे

सङक के,

या बगीचों में

लहक के ।


चीरती धूप में

चटक नारंगी

और लाल रंग के

कालीन बिछे

बीचोंबीच 

बाज़ारों के,

गाङियों की छत पर,

फुटपाथ पर ।

आंधियों में उङती

पंखुरियां मानो 

कहानियों की

लाल परियां ।


याद आती हैं

रेगिस्तानी इलाकों में

चटक चूनरी ओढ़े 

और घाघरा पहने

पानी के गीत 

गुनगुनाती,

हँसती-खिलखिलाती

पतंगों सी,

रेत में फूल खिलाती

लपटों सी चलती जाती 

सखियों की टोली!


बेजान पस्त पथिक 

प्याऊ का पानी पी कर

सुस्ता लेते कुछ देर

घने पेङ के नीचे ।

सहसा पङती जो नज़र 

गुलमोहर पर..

कुछ सोच कर..

छिटक कर क्लांत भाव,

सारी थकान, पुन: प्रयाण..

उठ खङा होता पथिक

और चल देता दृढ़तापूर्वक,

सधे हुए कदम बढ़ते आगे ।


भट्टी से जलते जिन दिनों में

झुलस जाते हैं पेङ तमाम,

उन्ही भाङ से भुनते दिनों में

क्या टूट कर खिलता है गुलमोहर !




3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद मनमोहक, सुंदर बिंबों से सजी लाज़वाब रचना।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ११ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

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