शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

एक नदी बहती है मेरे भीतर कहीं


एक नदी बहती है कल कल
हम सबके मन के भीतर कहीं,
अपना रास्ता तराशती हुई,
दो पाटों को जोङती-घटाती,
सदियों का हिसाब-किताब 
चुकता करती जाती निरंतर ..
बकाया किसी का नहीं रखती ।

कभी पलट कर नहीं देखती नदी,
सब कुछ बहा ले जाती नदी ।
फिर हम क्यों पालें मनमुटाव
करें अपनों से ही दुराव-छिपाव ?
क्यों रोकें बहती नदी का बहाव
और खेते रहें टूटी हुई नाव ?
क्योंकि समय नहीं करता लिहाज ।


वक्त बहुत जल्द जाता है बीत,
पीछे छूट जाते हैं मनमीत।
इससे पहले कि जाए उतर
घाट का पानी ..क्यों न हम
कर लें बूँद-बूँद का आचमन,
जिससे छलकता रहे क्षीरसागर 
और रिश्तों की ज़मीन रहे नम ।



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