रविवार, 16 सितंबर 2018

संध्या वंदन


सांझ की लौटती धूप
धीरे-धीरे आती है,
सोच में डूबी हौले-हौले
भोले बच्चों जैसी
फूल-पत्तियों को..
सरल सलोने स्वप्नों को
दुलारती है ।
हल्की-सी बयार से
पीठ थपथपाती है ।

बस इतनी-सी बात पर
शाम रंग-बिरंगे दुपट्टों-सी
झटपट रंग जाती है ।
थके-हारे मन सी
माथे की शिकन-सी
आसमान की
सलेटी सिलवटों को,
कल्पना की कूची से
कभी चटक कभी गहरा
गुलाबी,नारंगी,जामुनी और
नीलम से नीला रंग कर
रुपहला बना देती है ।

जीवन के भले-बुरे 
सारे रंगों का दिलचस्प
कोलाज बना देती है ।

स्मरण कराती है ..
उठो अब दिया-बाती करो ।
संध्या वंदन करो ।
चलो आगे बढ़ो ।
समय का पथ प्रशस्त करो ।

16 टिप्‍पणियां:

  1. There are certain people who have an unusual inborn trait. Some people feel blue around sunsets. ये वैज्ञानिक तोर पे भी मानी गई है की सांझ के समय कुछ लोग depressed करते हैं. मेरा एक मित्र भी सांझ समय उदास सा हो जाता है। उसे ये पढ़ाउंगा। उसका dipression दूर हो जाएगा।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-09-2018) को "बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?" (चर्चा अंक-3098) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. संध्याकाल को अक्सर उदासी से जोड़ा जाता है। मराठी भाषा में तो इसे कातरवेळ यानि मन को कातर,व्याकुल बना देने वाला कहा गया है। आपने संध्याकाल को उत्साह से जोड़कर नई दिशा दी है। रचना बहुत सुंदर है।

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  4. उठो अब दिया-बाती करो ।
    संध्या वंदन करो ।
    चलो आगे बढ़ो ।
    समय का पथ प्रशस्त करो ।
    बहुत ही सुंदर ,सहज सा जीवन दर्शन जो हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है |
    प्रेरक रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय नुपुरम जी |

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  5. धन्यवाद अनमोल ..आपने जिस नज़रिए से देखा और समझा.
    एक आदत,एक ज़िद होती है..रात के अँधेरे को नहीं, उसकी चूनर में टंके सितारों को देखने की .
    कुटिया के अंधकार को नहीं, एक कोने में जलते दिए देखने की .
    हमारी खिड़की में खिले गुलाब पर पड़ती लौटती धूप ने यह सिखाया .
    पढ़ते रहिएगा . नमस्ते .

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  6. दिग्विजयजी, आपका हार्दिक आभार.
    हलचल में कम links होने की वजह से ज़्यादा लोग पढ़ पाते हैं .
    विचार भी जानने को मिलते हैं .
    संयोजन भी सुन्दर बन पड़ता है.
    पुनः धन्यवाद और बधाई !

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  7. शास्त्रीजी धन्यवाद. बरसते बादलों के बीच लौटती धूप की बात होना ..इन्द्रधनुष का अहसास होने जैसा है.
    आपका आभार.

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  8. अनुराधाजी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार.
    समय निकाल कर आइयेगा बार-बार.

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  9. रोहितासजी, ठीक कहा आपने.
    जीवन की सुन्दरता नदी की तरह बहते रहने में है.
    लहर-लहर होकर ही नौका पार होती है.
    धन्यवाद.

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  10. मीनाजी,
    हर शाम खिड़की से बाहर आकाश को किसी पेंटिंग की तरह रंगते हुए देखने की उत्सुकता रहती है.
    हलकी सी हवा चल जाए तो और भी अच्छा लगता है.
    यह समय टकटकी बाँध कर इन बदलते रंगों को देखने और ध्यान करने का होता है.
    मन शांत होता है.
    आपने समझ लिया. आपका हार्दिक आभार.

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  11. रेणुजी,

    आपने नब्ज़ पर हाथ रख दिया.

    यदि संध्या समय उदासी का दूसरा नाम है, तो संध्या आरती, संध्या पूजन और तुलसी चौबारे पर दिया जलाने का क्या औचित्य है ? आकाश की ओर देखा तो पल-पल गहराते रंगों ने जता दिया. दिवस और रात्रि के मिलने का समय चिंतन करने का समय है. मंथन कर आगे बढ़ने का समय है.

    मन तो सांझ की ड्योढ़ी पर रखा दिया है.
    दिन ढलने पर तो दीपक ही को जलना है.

    हार्दिक आभार.

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