बुधवार, 30 नवंबर 2011

नदी





नदी का पानी
कभी ठहरता नहीं.
पर नदी के किनारे,
इस पार उस पार,
वही पुराने घाट हैं.

कल कल बहता पानी
सदियों से,
घाटों को ही अपनी
सुनाता आया है 

कहानी.
सुन सुन कर कहानियां
घिस गई हैं
घाट की सीढियां.
कई बार भावावेग में
डूब गई हैं सीढियां.

नदी का उमङना,
घटना-बढना,
जीवन के क़म हैं.
जिन्हें साँझ-सवेरे
नैया खेते-खेते
अपने गीतों में रच के
गाते हैं मांझी.



2 टिप्‍पणियां:

  1. बात नई तो नहीं है, मगर जिस तरह से कही गई है, उसमें एक ताज़गी है। सीढ़ियों का भावावेग में डूबना और जीवनक्रम का मांझी के गीतों में बसना अच्छा लगा। बहती नदी, चलती नैया और मांझी के गीतों का जीवन से न जाने क्या सम्बंध है कि उनका वर्णन सदा ही दिल को छू जाता है।

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  2. प्रोत्साहन के लिए और मन के भाव समझने के लिए आपका हार्दिक आभार
    कोई कुछ कहे इसलिए नहीं लिखता आदमी पर कोई
    कुछ कहे तो इतनी तसल्ली हो जाती है कि चलो कोई
    तो पढता है

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