जो चाहा
और जो हुआ,
इन दोनों
सौतेले झमेलों में...
कितने भी हाथ-पाँव पटको
कितने भी पैंतरे बदल-बदल कर देखो
सोच-सोच कर सर दे मारो...
समझदारों !
जो चाहा
और जो हुआ
इन दोनों में तुक बैठेगी नहीं,
कितनी भी कर लो तुकबंदी !
हाँ ! अगर
जो हुआ उसे
सोच की कसौटी पर
कस कर
परखो
और कुछ कर दिखाओ
तो इंशा अल्लाह !
तुकबंदी भी होगी उम्दा,
और बनेगी ज़िंदगी कविता.
khoobsurat !
जवाब देंहटाएंsarahna ke liye dhanyawad
जवाब देंहटाएंबड़ी सहजता से अभिव्यक्त किया है इतनी गहरी बात को.
जवाब देंहटाएंprotsahan ke liye dhanywad.
जवाब देंहटाएंSahaj aur sateek abhivayakti ke liye sadhuvad
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