मंगलवार, 14 जनवरी 2025

लो उङने लगी पतंग !


दुकान में टंगी थी

दुछत्ती में पङी थी

पतंग रंग-बिरंगी

बङे आराम से थी !


जब आई मकर संक्रांति

सूर्य ने करवट बदली

पवन की चाल तिरछी

पतंग की पलटी नियति !


दुकान खंगाली गई

दुछत्ती झाङी गई

पतंग बांधी गई

चरखी संभाली गई


ग्राहकों की कतार लगी

भावतोल करने लगी

कांप,सद्दा, जुगाङी गई

पतंगों की पूछ होने लगी


कोहरे से ढकी सुबह हुई 

धुंध छँटी जब धूप खिली

नीली चुनरी पर बूटियों सी

पतंगें नभ पर छाने लगीं


छतों पर टोलियाँ आ जमीं

तिल-गुङ गजक मूँगफली 

केतलियाँ गर्म चाय की

बल्लियों उछलते जोश की


पतंग जब ऊँची उङने लगी

आवाज़ें पीछे छूटने लगीं

चीज़ें छोटी दिखने लगीं

धूप सेंकती पतंग मगन हुई 


जब सूरज से लगन लगी

तब कोई पतंग कट गई 

कोई पताका सी फहराई

कोई खेल में अव्वल आई 


फसल पकी खुशियाँ लाई

जेबों में खनकी कमाई

दुनिया भर से पेच लङाती

पतंगों ने भी मौज मनाई !


मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

अलविदा, फिर आना ..


समय जो बीत गया

उसे अलविदा ।

जैसा भी बीता,

बीत गया ।

यादें और हिदायतें 

छोङ गया ।

वक्त का काफ़िला 

आगे बढ़ गया ।

बदल कर चोला

फिर लौटा,

गाता-गुनगुनाता 

हाथ लिए इकतारा ।

आने वाले समय

स्वागत है तुम्हारा ।

खोलो अपना पिटारा !

शुरु करो खेल अपना !

हमारी शुभकामना !

सिर्फ़ ख़बर मत बनना !

सबके दिलों में बसना !



शनिवार, 7 दिसंबर 2024

तासीर


हमारी समझ के बीच

ऊँचे पहाङ हैं..

समझना मुश्किल है

उस पार की समझ ।

उस तरफ़ कितनी

कङी धूप है,

कितनी छाँव है घनी ।

बंजर है भूमि,

या है हरियाली ।

कोई नदी

है भी या नहीं । 

फसल कौनसी

उगाई जाती,

कैसी होती है 

रहने की झोंपङी ।

बच्चे कौन से 

खेलते हैं खेल,

बगीचों में अक्सर

खिलते हैं कौनसे फूल ..

पर कभी-कभी 

पवन बहती है जब..

लाती है अपने साथ

सुगंध की सौगात..

और कभी-कभी

हवाओं में तैरती

किसी के गाने की 

सोज़ भरी आवाज़ ।

उस ओर जाए बिना

हम जानते हैं उन्हें ।

देखने और छूने की 

कोई ज़रुरत नहीं ।

किसी की पहचान

होती है उसकी सुगंध, 

कह देते हैं सब कुछ

उसके गाने के सुर ।