पथ पर उमङते वारकरी !
स्वर लहरी हरि कीर्तन की !
कुर्ता-धोती, सफ़ेद टोपी,
धुन में मगन मंजीरे की !
रंग-रंग की पहने नव्वारी,
शीश पर गमले में तुलसी !
मृदंग-एकतारे की जुगलबंदी,
छाई अभंग की मृदुल तारी !
यात्रा में इक्कीस दिन की,
आलिंदी से पंढरपुर की,
नाचती-गाती चली टोली !
गुहार लगाती पांडुरंग की !
पताका फहराई नाम की !
पांडुरंग श्री हरि विट्ठल की !
लेकर संतों की पालकी,
पदयात्रा पुन: गंतव्य की !
अंतर्मन निरंतर टटोलती ..
विठू-माउली को पुकारती..
कीर्तन प्रसाद वितरित करती,
ताल, लय और भाव से बँधी
झूमती चली वारी पंढरपुर की !
नमस्ते namaste
शब्दों में बुने भाव भले लगते हैं । स्याही में घुले संकल्प बल देते हैं ।
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
वारी पंढरपुर की
बुधवार, 11 जून 2025
छत्रछाया
विराट वट वृक्ष की जटाओं में
उलझे हैं कई जटिल सवाल
जिनके मिलते नहीं जवाब।
जटाधारी जोगी की छाँव मगर
देती सदा कितनों को पनाह !
सख़्त तना घुमावदार पठार
चबूतरे पर धूनी जमाए बैठा
अटल, तटस्थ, ध्यानमग्न ..
अनगिनत शाखाओं और
अपनी फैली हुई जङों से
थामे मिट्टी का कण-कण,
छूटने नहीं देता अटूट बंधन,
बहने नहीं देता बाढ़ में !
जीव-जंतु को देता आश्रय
वो देखो बसा है पूरा गाँव !
गिलहरी पुल पार कर जा रही
एक चिङिया ओढ़े कत्थई शाॅल
इधर-उधर कर रही चहलक़दमी !
उस घोंसले में है बङी चहल-पहल !
और मेरे ऊपर हरी-भरी विशाल छत
ठंडी बयार बार-बार करती दुलार
मन में बो गई वृक्षारोपण का संकल्प ।
बुधवार, 4 जून 2025
सच से साक्षात्कार
सचमुच.. सच शरारती है बङा !
जाने कब पीछे से दबे पाँव आकर
धौल जमाता है ज़ोर की छुप कर !
और फिर चंपत हो जाता है फ़ौरन !
रेत जैसा हाथों से जाता है फिसल,
अंजुरी में जैसे टिकता नहीं जल ।
बौराई पवन के झोंके की तर्ज पर
छूकर आगे बढ़ जाता है झटपट !
वर्षा की फुहार का फाये सा स्पर्श
गीली मिट्टी में समा जाता अविलंब।
इंद्रधनुष पल भर में होता ओझल
ऐसे ही नहीं देखा प्रत्यक्ष कभी सच ।
अगोचर को जानने मूंदे अपने नयन
ध्यान लगाना चाहा श्वास साध कर ।
पूर्वाग्रह अनेक सूखे पत्तों से गए झर
धूमिल हुआ शिकायतों का पतझङ ।
यात्रा में मिली जो वृक्ष की छाँव सघन
बेकल मन थका तन हो गया शिथिल
पाकर तने की टेक पलक गई झपक ।
अनायास ही हुआ कुछ ऐसा आभास
गले से लगा कर और रख सिर पर हाथ
कोई आत्मीयता का कवच पहना गया ।
सामने न आया पर इतना समझा गया
वृक्ष बनो छायादार,फिर होगी मुलाकात !