मंगलवार, 8 जुलाई 2025

वारी पंढरपुर की


पथ पर उमङते वारकरी !

स्वर लहरी हरि कीर्तन की !

कुर्ता-धोती, सफ़ेद टोपी,

धुन में मगन मंजीरे की !

रंग-रंग की पहने नव्वारी,

शीश पर गमले में तुलसी !

मृदंग-एकतारे की जुगलबंदी,

छाई अभंग की मृदुल तारी !

यात्रा में इक्कीस दिन की,

आलिंदी से पंढरपुर की,

नाचती-गाती चली टोली !

गुहार लगाती पांडुरंग की !

पताका फहराई नाम की !

पांडुरंग श्री हरि विट्ठल की !

लेकर संतों की पालकी,

पदयात्रा पुन: गंतव्य की !

अंतर्मन निरंतर टटोलती ..

विठू-माउली को पुकारती..

कीर्तन प्रसाद वितरित करती,

ताल, लय और भाव से बँधी

झूमती चली वारी पंढरपुर की !


बुधवार, 11 जून 2025

छत्रछाया


विराट वट वृक्ष की जटाओं में 

उलझे हैं कई जटिल सवाल 

जिनके मिलते नहीं जवाब।

जटाधारी जोगी की छाँव मगर

देती सदा कितनों को पनाह !

सख़्त तना घुमावदार पठार

चबूतरे पर धूनी जमाए बैठा

अटल, तटस्थ, ध्यानमग्न ..

अनगिनत शाखाओं और 

अपनी फैली हुई जङों से 

थामे मिट्टी का कण-कण,

छूटने नहीं देता अटूट बंधन,

बहने नहीं देता बाढ़ में !

जीव-जंतु को देता आश्रय

वो देखो बसा है पूरा गाँव !

गिलहरी पुल पार कर जा रही

एक चिङिया ओढ़े कत्थई शाॅल 

इधर-उधर कर रही चहलक़दमी !

उस घोंसले में है बङी चहल-पहल !

और मेरे ऊपर हरी-भरी विशाल छत

ठंडी बयार बार-बार करती दुलार

मन में बो गई वृक्षारोपण का संकल्प ।


बुधवार, 4 जून 2025

सच से साक्षात्कार



सचमुच.. सच शरारती है बङा !

जाने कब पीछे से दबे पाँव आकर

धौल जमाता है ज़ोर की छुप कर !

और फिर चंपत हो जाता है फ़ौरन !

रेत जैसा हाथों से जाता है फिसल,

अंजुरी में जैसे टिकता नहीं जल ।

बौराई पवन के झोंके की तर्ज पर

छूकर आगे बढ़ जाता है झटपट !

वर्षा की फुहार का फाये सा स्पर्श 

गीली मिट्टी में समा जाता अविलंब।

इंद्रधनुष पल भर में होता ओझल

ऐसे ही नहीं देखा प्रत्यक्ष कभी सच ।


अगोचर को जानने मूंदे अपने नयन

ध्यान लगाना चाहा श्वास साध कर ।

पूर्वाग्रह अनेक सूखे पत्तों से गए झर

धूमिल हुआ शिकायतों का पतझङ ।

यात्रा में मिली जो वृक्ष की छाँव सघन

बेकल मन थका तन हो गया शिथिल

पाकर तने की टेक पलक गई झपक ।

अनायास ही हुआ कुछ ऐसा आभास

गले से लगा कर और रख सिर पर हाथ

कोई आत्मीयता का कवच पहना गया ।

सामने न आया पर इतना समझा गया

वृक्ष बनो छायादार,फिर होगी मुलाकात !