शनिवार, 27 सितंबर 2025

महिषासुरमर्दिनी


कहानी है ये उन दिनों की

कहलाती जो शारदीय नवरात्रि

जब पीहर आती हैं भगवती

पाठशाला की बज उठी घंटी


भागी-दौङी बच्चों की टोली 

बस्ता सँभालती कक्षा पहुँची

जब आई भीतर टीचर दीदी

समवेत स्वर में दी गई सलामी


आते ही मुङ कर चाॅक उठाई

ब्लैक बोर्ड पर इक छवि बनाई 

विशाल शंख-सी आँखों वाली 

देवी माँ जिनकी सिंह सवारी


एक स्वर में चहक उठी फुलवारी

जय माता की बोली कक्षा सारी

बारी-बारी से सबने कथा सुनाई 

आखिर में प्रश्नों की बारी आई!


महिषासुरमर्दिनी देवी माँ कहलाईं 

क्यों कथा अब भी जाती दोहराई 

अब भी महिषासुर है क्या दीदी ?

उत्तर में दीदी बोली बूझो पहेली !


सोच कर बताओ कौनसी बुराई 

तुमको लगती महिषासुर जैसी ?

क्या सब बच्चे कर पाते पढाई ?

क्या सभी जगहों में है सफ़ाई ?


महिषासुर माने कोई भी बुराई 

बाढ़, अकाल, डर, बेइमानी..

मैदान में जो डट कर करे लङाई

उसकी रक्षा करने आती है माई 


बच्चों के मन में दीदी ने की गुङाई

और सोच का इक बीज बो गई 

बच्चे बने माँ की सेना के सिपाही

नवदुर्गा कथा अब समझ में आई 


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चित्र अंतरजाल से आभार सहित

सोमवार, 22 सितंबर 2025

माँ के आगमन का गान


माँ तुम्हारा आगमन जान 

जगत हुआ दैदीप्यमान !

दीप हुए प्रज्ज्वलित स्वत:

तुम्हारी कृपा की ऊष्मा पाकर

सजग हुआ समस्त भूतल ..

पुष्प पल्लव प्रफुल्ल सहज

स्वागत में पंक्तिबद्ध खिल कर,

अर्पित करते सुगंधित रंग प्रसंग,

सुवासित बयार का नमस्कार 

जगत जननी माँ दुर्गा को हो स्वीकार।

 

दूर करो माँ अंतर का अंधकार 

शुद्ध अंत:करण से कर सकूँ नमन ।

तेज से तुम्हारे नष्ट हों मनोविकार,

आलोकित भुवन में खुलें मन के द्वार

चतुर्दिक हो नवीन ऊर्जा का संचार !

करुणामयी माँ ऐसा देना आशीर्वाद 

ह्रदय घट में भर देना संवेदना अपार ।

 

भोर का गान करता माँ का आह्वान,

सुप्त स्वर जागे हुआ नभ गुंजायमान ।

ढाक की गर्जना के मध्य हो स्थापन

माँ मन में हमारे विराजें तुम्हारे चरण ।

चेतावनी देती तुम्हारी दृष्टि भेदे तम

चित्त में छवि तुम्हारी जगमगाए जगदंब ।


रविवार, 14 सितंबर 2025

हिंदी हम सबको भाती है


हिंदी अपनी-सी लगती है ।

सहज समझ आ जाती है ।

भाषा यह सबकी चहेती है ।

मिसरी की मीठी डली सी है

हर भाषा में घुल जाती है ..

हर भाषा को अपनाती है ।

हर प्रांत में बोली जाती है ।

विश्व भर में सीखी जाती है ।


जब प्रभुत्व की बारी आती है,

विदेशी भाषा चुनी जाती है ।

जिसका रुआब तगङा है !

हर क्षेत्र में डंका बजता है !

ऐसा फ़र्क आदमी करता है ।

भाषा के बाज़ लङाता है ।

लट्ठ की तरह चलाता है ।

भाषा से क्या कोई नाता है ?


भाषा तो बस भाषा ही है ।

बात कहती और सुनती है ।

वर्षा ऋतु की हरियाली है ।

स्वत: उगती, छा जाती है ।

नदी की अविरल धारा है ।

ख़ुद अपनी राह बनाती है ।

भाषा का अपना नज़रिया है ।

भाषा संस्कार वाहिनी है ।


हिंदी का अपना सलीका है ।

बोलियों का विशाल कुनबा है ।

कई भाषाओं से गहरा रिश्ता है ।

हिंदी का स्वभाव ही ऐसा है ।

हिंदी हर साँचे में ढल जाती है ..

हैदराबादी या मुंबइया हिंदी है !

कोस-कोस लहजा बदलती जाती है,

हिंदी हमारी संस्कृति की पहचान है ।



चित्र फ़्रीपिक से साभार