शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

रिश्ते


देखते - देखते
ना जाने कब
सारे फ़र्नीचर पर 
धूल की तह 
जम गई.

आँख की नमी
बर्फ़ हो गयी.

धमनियों में
खून की
रवानी
थम गई.

बालकनी में
फूली बेल
मुरझा गई.

बरनी के अचार में
फफूंद लग गई.

हंसती - गुनगुनाती
चारदीवारी पर
चुप्पी छा गई.

दोपहर में दो पल
झपकी-सी आ गई थी ..
बस इतने में ही
बदल गया सब कुछ ?

शाम हो चली
ठंडी हवा बह रही..
ये सब सोच कर जी
बेहद घबराता है.

पर जो हो ही गया
उसे भुला
नए सिरे से
संसार संवारना
मुझे
आता है.

चोट खाकर संभलना,
टूटी माला के मोती पिरोना,
नए बटन टांकना,
फटी जेबें सिलना,
हर हफ्ते जाले उतारना,
घर का कोना कोना
साफ़ रखना,
फटे दूध का 
छेना बनाना,
फ्यूज़ ठीक करना,
छोटी - मोटी मरम्मत करना ..
सब आता है
मुझे.

अब वो बात नहीं रही,
पर कोई बात नहीं.

जो भी बचा है उसे
बड़े ठाठ से, 
लगा कर कलेजे से,
जीना आता है मुझे.  








noopuram

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