रविवार, 5 जुलाई 2015

सोच

सामाजिक दायित्व की
प्रतिबद्धता
है कविता ।

सबसे बड़ी
कविता -
"जहाँ सोच
वहां शौचालय" ।

शनिवार, 20 जून 2015

युद्ध

अपना महाभारत 
स्वयं ही 
लड़ना होता है ।

ख़ुद ही अर्जुन
ख़ुद ही श्रीकृष्ण 
बनना पड़ता है ।


शुक्रवार, 19 जून 2015

प्रसाद दो ना


घर का रास्ता खो गया । 
मुझे याद नहीं 
अपना ही पता । 
काश कोई अपना 
राह चलते मिल जाता,
घर तक पहुँचा आता ।

हे ईश्वर ! परमपिता !
तुम ही ने जब 
इस भूल भुलैया का 
खेल है रचा ,
तो तुम ही क्यों नहीं 
अब बता देते सही पता ?
तुम्हें तो सब कुछ है पता ,
तुम्हारा ही तो है एकमेव आसरा ।

बताओ तो भला 
ऐसा क्यों हुआ ?

जिन्हें तुमने मार्ग बुझाने भेजा 
वो भी क्यों बुझाते हैं पहेली ?
क्यों नहीं करते बात सीधी - सच्ची ?
सहजता की क्यों कोई अब मान्यता नहीं रही ??
क्यों नहीं बोलता कोई 
सहज और सरल प्रेम की बोली ?

क्या मान्यताओं और विषम परिस्थितियों में ही 
उलझा कर, 
लेते रहोगे तुम निरंतर परीक्षा ?
क्या सरल आस्था और समर्पण की 
मिटटी में, 
ना खिल सकेगा 
भक्ति का पौधा ?

यदि हाँ तो अभी ही उत्तर दो ना !
मन की अपार व्यथा दूर करो ना !
मेरी ऊँगली पकड़ कर मुझे घर तक पहुँचा दो ना !



रविवार, 17 मई 2015

करने का क्या ?



क्यों बिरादर ?
क्यों आंसू बहाता है ?
क्यों अकेलेपन से घबराता है ?

तुझे क्या लगा तू ही अकेला है ?
तेरे साथ ही किसी का 
ज्यादा दिन जमता नहीं ?
फिर तो तुझे कुछ पता ही नहीं !

देख, तेरे पास जास्ती पैसा नहीं !
तू जास्ती पढ़ा - लिखा नहीं !
तेरा नौकरी भी चकमक नहीं !
मतलब हर जगह से तेरा पत्ता साफ !
ज्यादा दिन कोई नहीं रहता तेरे साथ !
बस ये ही है न बात ?

अब मुझे देख जरा !
शकल तो अपनी बुरी नहीं !
पर कोई खास भी नहीं !
टॉप की पढ़ाई भी नहीं !
काम भी टिप - टॉप नहीं !
पर अगर बोलो कि कुछ भी नहीं !
तो ऐसा भी ठीक नहीं !

पर कुछ पता भी है कि नहीं !
अपना तो कभी सही नंबर ही 
                                लगता नहीं !
लाइफ में जब भी लगा ! 
रॉन्ग नंबर ही लगा !
पता नहीं क्या गलत हो गया !
तो बोलो नतीजा क्या ?
अपना भी लाइफ अकेलेपन का !

अब उसको देख !
चिकना अपना !
पोस्टर के हीरो माफिक शकल इसका !
फर्राटे से दौड़ता है धंधा इसका !
इसके पीछे दुनिया दीवानी !
पर पता है क्या इसकी परेशानी ?
एक लड़की भी इसको पसंद नहीं आती !
कोई इसको समझ नहीं पाती !
बोलो फिर नतीजा क्या ?
ये भी अकेला का अकेला !

अभी बोल करने का क्या ?
सब कुछ रहेगा - तो भी अकेला ।
नहीं रहेगा - तो भी अकेला ।
बता समझने का क्या ?
लाइफ में लोचा ही लोचा !
अभी बोल करने का क्या ?

देख अपने को एक बात समझा ।   
जो होने को है वो ही होता ।
फकत अपने को क्या लगता  . . 
अपने दिमाग पर ताला नहीं मारने का ।
दिल का रास्ता बंद नहीं करने का ।
समझो कभी कोई आया !
जिससे चांस है अपना जमने का  . . 
तो वो लौट के नहीं जाने का !

अगर कोई तुम्हारे वास्ते आया 
तो पहचान लेने का,
जाने नहीं देने का !

बस रेडी रहने का !
जब अपना टाइम आयेगा,
टाइमिंग सेट हो जायेगा !


      

अश्रु झरते दिन रात



जिस तरह पतझड़ में झरते पात,
नयनों से अश्रु झरते दिन रात ।  

दुविधा की इस घड़ी  में कोई नहीं साथ,
कोई नहीं साथ जो समझे मन की बात ।

मन के सहज भावों ने किया आत्मघात,
अंतर के कोलाहल का निष्ठाओं पर आघात ।    

भव्य प्रस्तर प्रतिमाओं के बीच,
कोमल फूलों की क्या बिसात ।  


मंगलवार, 12 मई 2015

आकस्मिक


ये बात उस परिचित की है
जो कल तक बेगाना था
और आज ज़बरदस्ती
दोस्त बन बैठा है ।
अचानक उस दिन उसने पुकारा
खूबसूरत कह के पुकारा
तो अचरज हुआ
कुछ कहते नहीं बना ।
फिर सोचा चलो
हाज़िरजवाबी का लेकर सहारा
मारा जाये नहले पे दहला
मैंने भी उसे नौजवान सजीला कह दिया ।
अब क्या था
बातों का पिटारा खुल गया ।
जैसे उसने दामन ही पकड़ लिया ।
उसने अपने बारे में बताया
वो भी बताया
जो लोग अक्सर कह पाते हैं
अपने करीबी दोस्त से ।
अब तक समझ नहीं आया
ऐसा उसने क्यों किया ?
एक टूटा हुआ रिश्ता
अंदरूनी ज़ख्म होता है
जो आदमी या तो वैद्य
या अपने अज़ीज़ को दिखाता है ।
मुझे तो न दुःख की दवा पता
न आज से पहले था कोई रिश्ता ।
फिर उसने अपना सवाल पूछा
जैसे उसे पहले से था पता
कि मन के किसी कोने में
जवाब है छुपा ।
ये मनाता हुआ
कि कोई पूछ ले सवाल
टटोले दिल का हाल  ।
वरना क्या ज़रूरी था ?
सवाल का जवाब देना ?
बल्कि तुमने ही किया था
शुक्रिया
पूछने का और सुनने का ।
खुद ही अपना चैन गवां दिया !
माना उसने कंकड़ फेंका
शांत जल को उथल पुथल कर दिया ।
पर तुमसे किसने कहा था
उसी जल में देखो अपना मुखड़ा ?
हर बात जानना चाहता है
हर ज़ख्म कुरेदना चाहता है
दुःख बाँटना चाहता है
कस कर गले लगाना चाहता है
और सब कुछ अभी
अभी कि अभी
जानना चाहता है ।
मेरा ये आकस्मिक दोस्त
आखिर क्या चाहता है ?

रविवार, 10 मई 2015

अभिनंदन

पस्त 
ध्वस्त 
क्लांत 
परास्त 
बस के इंतज़ार में 
सड़क के किनारे 
पेड़ के नीचे 
खड़ी थी, 
सोचती हुई ।  
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं । 
किसी को परवाह नहीं । 
जीने की कोई चाह नहीं ।  
रास्ता तक पार करने की 
हिम्मत नहीं । 
पैरों में जान नहीं ।  
कैसे जीवन की 
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।

आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।  
और नब्ज़ डूब सी रही थी । 
फिर अनायास ही देखा  . . 
बहुत सारे 
सोनमोहर के फूल पीले 
मुझ पर ऊपर से झरे, 
दुपट्टे में अटक गए, 
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के 
बिखर गये ।

अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का 
अभिनंदन किया । 

और बहुत कुछ कह दिया ।