स्मृतियाँ बटोर लाई
दिवाली की सफ़ाई !
घर के जिन कोनों ,
तहखानों को ,
बरस में एक बार
टटोल कर
देखा जाता है . .
उन कोनों , तहखानों में
कई खज़ाने
छुपे होते हैं ।
सामान की परतों में
यादों के पुलिंदे
दबे होते हैं ।
पुरानी चिट्ठियों में
उन लोगों के ख़त मिले
जो अब दुनिया में
नहीं हैं ।
पर चिट्ठी पढ़ते - पढ़ते
वो धुंधले चेहरे
स्पष्ट हो गए ।
जैसे कल और आज के
बीच की लकीरें
मिट गई हैं ।
यादें नज़दीक आ के
माथा सहलाने लगी हैं ।
समय जैसे
समंदर की लहरों की तरह
तट पर
लौट आया है ।
वो भी क्या दिन थे !
बड़े विस्तार से
ख़त लिखे जाते थे ।
बातों के सिलसिले
चिट्ठियों में
बुने जाते थे ।
बहुत से
ग्रीटिंग कार्ड मिले ।
कुछ लोग साथ रहे ,
कुछ नहीं रहे ।
बचे तो सिर्फ़ उनके
हस्ताक्षर बचे ।
बड़े संदूक में से
माँ के हाथ के बुने
रंग - बिरंगे स्वेटर निकले ।
दो - तीन मफ़लर भी मिले ,
जो पापा पहना करते थे ।
इन स्वेटरों और
मफ़लरों की तहों में
यादों की गर्माहट है ।
स्टील की अलमारी के
ऊपर वाले कोने में ,
एक थैली में
बहुत सारे सिक्के मिले ।
कभी बचपन में
दादी ने
बहुत सारे
पैसे दिए थे ।
अब जो मिले . .
पुराने सिक्के खनके
तो बिखर गए
कई सुधियों के तिनके ।
और एक लकड़ी के
नक्काशी वाले
डिब्बे में
कुछ कंचे मिले . .
डाक टिकट पुराने . .
माचिस के डिब्बे . .
रंग - बिरंगी पेंसिलें . .
लूडो , साँप - सीढ़ी . .
एक लाल रंग की सीटी . .
खुशबू वाली रबर . .
चन्दन का पेन और पेपर कटर . .
बचा के रखी हुई चीज़ें ,
या कहिये
सँभाल के रखी हुई यादें ।
अब यादें ही तो बची हैं ।
यादें . . जो जीवन को सींचती हैं ।
दुछत्ती पर रखी एक कंडिया में
मिले कुछ मिट्टी के दीये
जो थे हाथों से पेंट किये
और कुछ लकड़ी के खिलौने ,
जिनसे खेलने वाले
बच्चे ही नहीं अब घर में ।
अब सोचा है किसी बच्चे
को दे दिए जाएं ये खिलौने ।
किसी नौनिहाल की मुस्कान
बन जाएं ये खिलौने ।
स्टोर में रखी छोटी अटैची में
छह - सात रूमाल मिले कढ़े हुए ।
एक मेजपोश और दो दुपट्टे
पेंट किये हुए पर अधूरे ।
बरसों पहले जो काम छूट गए थे
किसी वजह से बीच ही में ,
अब भी वो हो सकते हैं पूरे ।
अधूरे काम और अधूरे सपने
पूर्ण करने के लिए
ही शेष जीवन है ।
घर के भूले - बिसरे
हर कोने में ,
मेज़ की दराज़ों में ,
बरसों पुरानी किताबों में ,
रसोई के आलों में ,
दुछत्ती पर रखे बक्स में ,
बीते समय के
पदचिन्ह हैं ।
इनसे जुडी यादें
जीवन के सफ़रनामे में ,
वो मील के पत्थर हैं
जो भवितव्य के
पदचाप की
आहट पा जाते हैं ।
बरसों तक जिन्हें
रखा सहेजे ,
स्मृतियों में लिपटी वो चीज़ें . .
उस धरोहर पर
है वक़्त की मुहर ।
वक़्त जो इस ठिठके पहर
कर रहा है ऐलाने सहर ।