जग आँगन में अँगीठी .. विचारों की .. सुलग रही है । भावनाओं की आँच पर, मन की पतीली में कविता खदक रही है । मनभावन महक आ रही है । बेसब्री सता रही है । आओ, झट से पंगत में बैठें, और प्रतीक्षा करें रचना परोसे जाने की ।
नहीं पता .. कैसी है ये दशा । पढ़ा हुआ कुछ भी याद नहीं रहता . एक सुन्न सन्नाटा स्मृति पर छाया हुआ, जैसे गाढ़ा कोहरा धुंध का दुशाला दोहरा, जब भी पीछे मुड़ कर देखा। पढ़ा हुआ क्या कुछ भी याद नहीं रहता ? पढ़ कर जो कुछ पाया क्या सब खो दिया ? अँधेरी कोठरी में जला कर दिया जैसे कोई चीज़ खोजना .. ऐसे ही अपने प्रश्न का मैंने स्वयं उत्तर दिया । नहीं हो पाती पढ़े हुए की व्याख्या, पर रह जाता है एक अहसास चुप-चुप सा । कहा नहीं जा सकता, पर अनदेखा भी किया नहीं जा सकता । एक अव्यक्त अनुभूति होती है । कोई बात रह जाती है । जैसे हवा में खुशबू घुल जाती है । जैसे गीली मिट्टी पर छाप रह जाती है । फूल मुरझा जाते हैं । पर सुगंध मन में बस जाती है । वर्षा का जल बह जाता है । पर मिट्टी नमी सोख लेती है । समय की लठिया टेकता पतझड़ जब आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं । और अगर तूफ़ान आ गया .. सब कुछ तहस-नहस कर जाता है । इतना सब ध्वस्त होने के बाद भी, मिट्टी में कहीं बीज दबा रह जाता है । भाव के इस बीज से ही कल अंकुर फूटेगा । विचारों का पौधा पल्लवित होगा । और संवेदनशीलता का हरा-भरा वृक्ष लहलहायेगा अंतःकरण की उर्वर भूमि पर ।
कविता की व्यथा , चुभती, कचोटती कथा . कांच का टुकड़ा , कलेजे में उतरा . जो कहना मना था , वही कह बैठा . आंसुओं का सिलसिला , भीतर तक पैठा . कितना कुछ कहना था , जब कहने बैठा .. शब्दों की विवेचना में उलझ बैठा . उधेड़बुन से छूटा तो भावनाओं में डूबा . डूबा तो जाना , कविता की व्यथा , होती है क्या . व्यथा में पिरोया मोती कविता का , कविता की मार्मिक कथा .