शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

याद रहे !


अरे भाई सुनो !

होश में तो हो !

तुम बस में 

धक्का-मुक्की 

कर के चढ़े 

मवाली नहीं हो !

जो औरतों पर

अपना वज़न 

डालते हुए, 

टटोलते हुए, 

आगे बढ़ते हैं ।

बुज़ुर्गों को देखें तो..

पर चिङिया के

गिनने लगते हैं ! 

इस समय

तुम अपने 

पूजास्थल पर हो !

उस जगह हो

जहाँ हमेशा 

बङी ढिठाई से

कुछ-न-कुछ माँगने 

आते रहते हो !

जिससे माँगते

नहीं थकते,

उसी के सामने

माँ-बहनों से

इज़्ज़त से पेश 

नहीं आ सकते ?? 

तुम जिसे पूजते हो

वह बोलता न हो,

पर अंधा नहीं है !!

यहाँ और बाहर भी

उसकी नज़र 

रहती है सब पर !

याद रहे !

लाठी में उसकी

आवाज़ नहीं,

पर सारा हिसाब 

होता है यहीं !

बुधवार, 3 जुलाई 2024

सही साबित


सही चुनाव 

और

ग़लत फ़ैसले में,

उतना ही 

अंतर है,

जितना माद्दा है 

तुम में,

अपना निर्णय 

सही

साबित करने का ।


 

रविवार, 9 जून 2024

गुलमोहर के बहाने

तपती दोपहर में

खिले गुलमोहर ,

किनारे-किनारे

सङक के,

या बगीचों में

लहक के ।


चीरती धूप में

चटक नारंगी

और लाल रंग के

कालीन बिछे

बीचोंबीच 

बाज़ारों के,

गाङियों की छत पर,

फुटपाथ पर ।

आंधियों में उङती

पंखुरियां मानो 

कहानियों की

लाल परियां ।


याद आती हैं

रेगिस्तानी इलाकों में

चटक चूनरी ओढ़े 

और घाघरा पहने

पानी के गीत 

गुनगुनाती,

हँसती-खिलखिलाती

पतंगों सी,

रेत में फूल खिलाती

लपटों सी चलती जाती 

सखियों की टोली!


बेजान पस्त पथिक 

प्याऊ का पानी पी कर

सुस्ता लेते कुछ देर

घने पेङ के नीचे ।

सहसा पङती जो नज़र 

गुलमोहर पर..

कुछ सोच कर..

छिटक कर क्लांत भाव,

सारी थकान, पुन: प्रयाण..

उठ खङा होता पथिक

और चल देता दृढ़तापूर्वक,

सधे हुए कदम बढ़ते आगे ।


भट्टी से जलते जिन दिनों में

झुलस जाते हैं पेङ तमाम,

उन्ही भाङ से भुनते दिनों में

क्या टूट कर खिलता है गुलमोहर !