दृष्टिकोण
ज़रूरी नहीं
कि
हर सवाल का
जवाब मिलेगा .
ना सही .
पर ढूँढ़ते ढूँढ़ते
नया कोई
रास्ता
मिलेगा .
ज़रूर.
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
गुरुवार, 26 नवंबर 2009
सच सरीखा
क्या बुरा है ?
अगर
आज का दिन
इस खुशफ़हमी में कट जाये
कि गिनती के सही
कुछ लोग हैं .. एक आध ..
जो समझते हैं
दिल की बात ।
जिनके भरोसे कम से कम
आज ,
सोया जा सकता है
इस तसल्ली के साथ
कि कोई है
जो समझता है सारे हालात
और दिल की बात .
मान लो ,
कल ही चल बसे तो ?
अंतिम विदा के समय ,
मन में दुःख तो ना होगा
कि किसी ने भी
समझा ही नहीं ..
रुख़सत के वक़्त
इस बात का दिलासा होगा
कि किसी के दिल में तो
याद का दिया टिमटिमायेगा ।
क्या फ़ायदा ?
इस बहस में उलझने का
कि क्या सचमुच किसी का प्यार
जीवन भर साथ देगा
या
समय बीतने के साथ
छीजने लगेगा ।
क्या फ़ायदा ?
ये सोच कर
कि जो आज बहुत अपने हैं
कल शायद हों न हों ..
बताओ मेरे मन
कल किसने देखा है ?
सुनो मेरे मन
इस पल में समाओ तो ..
भरपूर जी पाओ तो ..
संभव है,
समय भी साथ देगा ।
साथ न दे सका तो
निभाने का मनोबल देगा,
और लम्बी यात्रा के लिए
छोटो-छोटी ईमानदार कोशिशों का
चना-चबैना ..
जिसके सहारे
शायद रास्ता कट जाये ।
हो सकता है
आख़िरी दम तक,
बचा रहे
बटुए में
किसी का प्यार और दुलार ..
भोली-सी मनुहार ।
कोई तो समझेगा
मन का हाहाकार ।
कोई तो जानेगा
मनप्रदेश का समाचार ..
जताए बिना,
जताए बिना,
कहे बिना ।
अगर ये सिर्फ़
खुशफ़हमी भी है
तो बुरा क्या है ?
जिसके सहारे
जीवन निभ जाए,
वो मन का माना
सच सरीखा है ।
सोमवार, 23 नवंबर 2009
कील
काश...
कि
जीवन की विसंगतियां
कि
जीवन की विसंगतियां
पेंसिल से लिखी होतीं..
बर्दाश्त से ज़्यादा
दुखने पर
रबर से मिटा दी जातीं ।
जब कि ये सारी बातें
मन की दीवार पर
सौ फीसदी
कील की तरह गड़ जातीं ।
पर कम से कम
जब तक
कील पर टंगी
मनचाही तस्वीर
हटाई न जाती ,
तब तक
इतनी बेढंगी कील
दिन-रात सामने
नज़र तो न आती ।
पर पेंसिल की नोंक
लिखते-लिखते
बार बार
टूट जो जाती है ,
फिर नए सिरे से
तराशी जाती है..
रबर भी अक्सर
गुम हो जाती है ।
तो इतनी मगजमारी
कौन करे ?
बेहतर है कि
जो
जिसके लिए
लिखा गया है ,
उस पेचीदा दस्तावेज़ को
वो
पूरा पढ़े ..
और फिर लड़े
अपने लिए
अपने बूते पर ।
जिस लिखे को
मिटाया नहीं जा सकता ।
सुधारा नहीं जा सकता ।
उसे बस
जिया जा सकता है,
कील पर टंगी
मनचाही तस्वीर के लिए ।
बर्दाश्त से ज़्यादा
दुखने पर
रबर से मिटा दी जातीं ।
जब कि ये सारी बातें
मन की दीवार पर
सौ फीसदी
कील की तरह गड़ जातीं ।
पर कम से कम
जब तक
कील पर टंगी
मनचाही तस्वीर
हटाई न जाती ,
तब तक
इतनी बेढंगी कील
दिन-रात सामने
नज़र तो न आती ।
पर पेंसिल की नोंक
लिखते-लिखते
बार बार
टूट जो जाती है ,
फिर नए सिरे से
तराशी जाती है..
रबर भी अक्सर
गुम हो जाती है ।
तो इतनी मगजमारी
कौन करे ?
बेहतर है कि
जो
जिसके लिए
लिखा गया है ,
उस पेचीदा दस्तावेज़ को
वो
पूरा पढ़े ..
और फिर लड़े
अपने लिए
अपने बूते पर ।
जिस लिखे को
मिटाया नहीं जा सकता ।
सुधारा नहीं जा सकता ।
उसे बस
जिया जा सकता है,
कील पर टंगी
मनचाही तस्वीर के लिए ।
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