बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

माँ


माँ आओ ! आओ माँ !

हुआ भोर का शंखनाद !

रश्मि रथ पर हो सवार

भव का तम हरने आओ !

दूर करो माँ यह अंधकार

जो लील रहा अस्तित्व मेरा !

सूझता नहीं मुझे पथ मेरा !

इस जग में है ही कौन मेरा

जिसको पुकार कर बुलाऊँ ?

अंतर का हाहाकार सुनाऊँ ?

अपनी कृपा दृष्टि का दीप जला

मुझे आगे का मार्ग दिखाओ ।

मेरे मन के महिषासुर बलवान 

दैन्य, दौर्बल्य, भय, संताप,

इन दुष्टों को मार भगाओ !

अपने नयनों के प्रखर तेज से

मुझमें साहस प्रज्ज्वलित करो माँ !

भावशून्यता के भंवर से उबारो !

जड़ तिमिर भेद मनोबल दो !

चरण धूलि तुम्हारी पा जाऊँ माँ !

ह्रदय आलोकित कर दे मेरा माँ

तुम्हारे पावन रूप की ज्योत्सना ।


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माँ की छवि अंतरजाल से साभार 

सोमवार, 30 सितंबर 2024

सृष्टि की संजीवनी वृष्टि


डबडबाए से आसमान की

धुंधली दृष्टि से पूछा बदली ने,

पहाङों की सीढियाँ उतर के,

धरती पर खिले सुंदर फूलों से..

क्या तुम इस मूसलाधार पानी,

जल के वेग से चिंतित नहीं ?

हठात कहीं बहा ले जाए..

तुम कैसे मुस्कुरा रहे

और ठाठ से खिल रहे ?


फूल बोले सहमति में 

सिर हिलाते, खिलखिलाते.. 

हम भीगे और भीज के

कुम्हला भी गए तो क्या ?

भरपूर खिले, बिखेरी छटा

प्यास बुझा कर तृप्त हुए !

अब सूखी मिट्टी भी नम हो,

वर्षा के जल से सिंचित हो,

सघन वृक्षों की जङें सिंचें ।


उर्वर भूमि में अंकुर फूटे,

पौधे पनपें, अभिषिक्त हों,

अभीष्ट है यही ।

फसलें झूमें, भरें ताल,

शीतल पवन बहे ।

सबके मुख पर हो हास

हमारे मन में यही आस ।

वृष्टि से तरल सृष्टि में

फूल खिलते ही रहेंगे ।


शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

सांझ की सांझी

 

रंग पुकारते हैं ।

जी टटोलते हैं ।


सृष्टि की हर कोर

रंगों से सराबोर ।


ढल जाती है

रंगों की आभा

भावों में,

संवेदनाओं में,

अनुभूति में,

अभिव्यक्ति में ।

कलाकृति में ।

फ़र्क है ही क्या ? प्रकृति की छटा और मनुष्य द्वारा तूलिका से उकेरी रंग संयोजना में ?

क्वार के दिनों में

ध्यान से देखना ..

सितंबर के महीने में 

रंगत कुछ और ही

होती है आकाश की ।

प्रतिस्पर्धा रंगों की

सजा देती हैं मंच

चटक रंगों का ।


कुछ रंग इन दिनों में

छिटक जाते हैं 

संभवत: धरती पर ।

बिन त्यौहार वाले

समय को मापते हैं

अनगिनत रंगों से ।

पितृ भी होते होंगे 

रंगों की बिछावट से 

परम प्रसन्न और तृप्त।

जीवन के रंग ही तो 

नहीं उस तरफ़।


इसी समय मनाया

जाता है ओणम।

फूल ही फूल आते 

हैं हर तरफ़ नज़र ।


वृंदावन में राधा जू

सखियन संग मिल

बनाती हैं सांझी ।

मिट्टी और जल पर 

सजीव हो उठतीं

झिलमिलाती,

होती प्रतिबिंबित

आनंद लीला ।


अभ्यास और भाव 

भरते हैं विविध

आकृतियों में रंग,

जीवंत हो उठता है

कलात्मक सृजन ।


रंगों का समागम

घुल-मिल कर 

रचता नया रंग ।

इतना नहीं सुगम

अंकन का गणित !


बुझाते हैं पहेली !

कभी नभ में लहराते

रंग-बिरंगी चूनर दुपट्टे !

कभी परस्पर गुंथ जाते 

जैसे माला में फूल ..

सांझ समय नभ में

बिखरे रंग छन छन

सांझी में ढल रचते

बेलों से सुसज्जित 

प्रभु लीला की झांकी ।

सुसज्जित सांझी ।

धरा, नभ और मन मगन देख रंगभीना अनूठा सृजन ।

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चित्र साभार : अंतरजाल और श्री करन पति