रविवार, 11 जनवरी 2015

सफ़ेद रिबन के फूल


और दिनों के मुक़ाबले, 
बस खाली थी 
और सरपट जा रही थी ।
दफ्तर वक़्त पर पहुँचने की 
उम्मीद थी ।
बैठने को मिल गया ,
तो ध्यान दूसरी तरफ गया  . . 
अख़बार की सुर्खियाँ टटोलने लगा ।
हर सिम्त बात वही ,
पेशावर के स्कूल की ।
एक स्टॉप पर बस जो रुकी, 
हँसती - खिलखिलाती, 
बल्कि चहचहाती ,
स्कूल की बच्चियाँ चढ़ गयीं ।
इतनी सारी थीं 
कि बस भर गयी !
स्कूल यूनिफार्म पहने, 
बस्ते लिए ,
और उनकी दोहरी चोटियों पे 
बने हुए थे,
सफ़ेद रिबन के फूल ।

सारी बस जैसे बन गयी थी बगिया, 
जिसमें खिले थे अनगिनत
सफ़ेद रिबन के फूल ।

बस ब्रेक लगाती, 
तो लड़कियाँ एक दूसरे पर गिर पड़तीं ।
उनमें से एक कहती  . . 
फिसलपट्टी है !  
और फिस्स से हँस देती ।
एक हँसती  . . उसके हँसते ही 
हँसी की लहर बन जाती ।
दुनिया से बेख़बर 
उनकी खुसर - फुसर ,
आँखों में चमक ,
बतरस की चहल - पहल ,
सारी की सारी बस में समा गयी । 
या बस उनमें समा गयी ।

बस कंडक्टर ने आवाज़ लगायी, 
चारों तरफ नज़र घुमाई, 
अब टिकट कौन लेगा भई !

जवाब में फिर सब हँस पड़ीं ,
जैसे बहे पहाड़ी नदी ।

इस लहर - हिलोर में मन में आया कहीं 
भगवान ना  करे  . . 
इनकी हँसी पर, 
इन सफ़ेद फूलों पर 
हमला करे कोई  . . 
नहीं ! कभी भी नहीं !
ऐसा ख़याल भी मन में लाना नहीं !
इन बच्चियों की हँसी 
दिन पर दिन परवान चढ़े । 
यूँ ही चलते रहें 
हँसी के सिलसिले !
हर तरफ़ खिलते रहें !
सलामत रहें !
सफ़ेद रिबन के फूल । 



रविवार, 23 नवंबर 2014

सुखांत कथा



आजकल हमें 
सुखांत कथा ही 
भाती है । 

वजह 
जो भी हो ।
चाहे ये 
कि वास्तविक जीवन में तो  . . 
अपने चाहे से 
कुछ होता नहीं ।
क्या होगा ?
उस पर बस नहीं ।
और असल बात तो 
ये है भई,
सुखद और दुखद का 
होता है अपना - अपना कोटा । 
ज़िन्दगी में ,
सुख के सिलसिले है कभी ,
दुःख भी डट कर बैठे हैं सभी ।
वस्तुस्थिति 
परिस्थिति 
यथार्थ घटनाक्रम से 
जूझते हैं सभी ,
कभी न कभी ।
इसमें क्या नयी बात है ?

बात तो तब है जब 
कथा से जन्मे 
संवेदनशीलता ।
होनहार होकर रहे 
पर आत्मबल ना झुके ।

क्योंकि मित्रवर अब सहन नहीं होते ,
हारे हुए कथानक ।
अंत में सद्भावना प्रबल हो ,
और इस तरह कथा सुखांत हो ।

          

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

उनकी भी आज दिवाली है







जहाँ सितारे ही दीये हैं,
मीलों बर्फीले सन्नाटे हैं.
आतिशबाज़ी गोलीबारी है,
सावधानी ही पूजा है.
उस सुनसान बियाबान में,  
घर से जो मीलों दूर हैं.
जो सीमा की पहरेदारी में,
अलख जगाये बैठे हैं.
                        उनकी भी आज दिवाली है .


जहाँ पानी आंसू की बूँद है.
साफ़ गलियां एक अय्याशी हैं.
जहाँ शोर ही आतिशबाज़ी है,
दो जून रोटी पकवान है.
उस झोंपड़पट्टी की बस्ती में,
हर पल जीने की जंग है.
जिनका कल रात लगी आग में,
जल कर हुआ सब कुछ ख़ाक है.
                           उनकी भी आज दिवाली है.

इन सबके नाम का एक दिया,
अब मन में हमें जलाना है.
उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया,
अब हमें कुछ कर के दिखाना है.

                        उनकी भी आज दिवाली है.
                        उनको भी दीया जलाना है.